Friday, December 25, 2020

प्रेस आज़ादी पहले से कहीं ज़्यादा अहम,

  59 मीडियाकर्मियों की हत्याओं की निन्दा 

Unsplash/Jovaughn Stephens//एक प्रेस गतिविधि को कवर करते हुए एक वीडियो पत्रकार

23 दिसम्बर 2020//कानून और अपराध की रोकथाम

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक संगठन (UNESCO) ने बताया है कि वर्ष 2020 के दौरान, अभी तक कम से कम 59 मीडियाकर्मी मारे गए हैं, जिनमें चार महिलाएँ भी हैं. संगठन ने बुधवार को ये आँकड़े जारी करते हुए, सूचना प्राप्ति और तथ्यात्मक पत्रकारिता को एक सार्वजनिक अच्छाई के रूप में क़ायम रखने के समर्थन में खड़े होने की पुकार भी लगाई.

यूनेस्को ने बुधवार को जारी एक वक्तव्य में कहा कि पिछले एक दशक के दौरान, औसतन, हर चार दिन में एक पत्रकार को अपनी ज़िन्दगी गँवानी पड़ी है. 

यूनेस्को की महानिदेशक ऑड्री अज़ूले ने कहा है कि अलबत्ता, वर्ष 2020 में, पत्रकारों की मौतों की संख्या तुलनात्मक रूप में सबसे कम रही है.

लेकिन ये भी सच है कि लोकतंत्र और मानवाधिकारों की हिफ़ाज़त के लिये, शायद ही पत्रकारिता की इतनी अहमियत रही हो, क्योंकि दुनिया, कोरोनावायरस और उसके आसपास मौजूद दुष्प्रचार व ग़लत जानकारी के फैलाव के वायरस से भी जूझ रही है.

सत्य की सुरक्षा

ऑड्री अज़ूले ने कहा है कि कोरोनावायरस महामारी, एक ऐसा सटीक तूफ़ान साबित हुई है जिसने दुनिया भर में प्रेस स्वतंत्रता को प्रभावित किया है.

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि पत्रकारिता की सुरक्षा करना, दरअसल सत्य की हिफ़ाज़त करना है.

यूनेस्को की रिपोर्ट में कहा गया है कि लातीनी अमेरिका और कैरीबियाई क्षेत्रों में 22 – 22 पत्रकारों की हत्याएँ हुईं और इन क्षेत्रों को एशिया और प्रशान्त क्षेत्र के साथ मिलाकर कहा जाए तो, पत्रकारों की सबसे ज़्यादा हत्याएँ हुई हैं. 

इसके बाद अरब क्षेत्र में 9 और अफ्रीका में 6 पत्रकारों की हत्याएँ हुईं.

यूनेस्को का कहना है कि पत्रकारों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में, औसतन 10 में से 9 मामलों में, दंडमुक्ति यानि न्यायिक प्रक्रिया का अभाव दिखा है, हालाँकि वर्ष 2020 में कुछ बेहतरी देखने को मिली है.

वर्ष 2020 में पत्रकारों की सुरक्षा पर यूनेस्को महानिदेशक की ये रिपोर्ट, पत्रकारों के ख़िलाफ़ अपराधों में न्याय के अभाव को ख़त्म करने के अन्तरराष्ट्रीय दिवस के आसपास ही प्रकाशित ही है.

इस दिवस के अवसर पर उपलब्ध आँकड़ों में पिछले दो वर्षों के दौरान पत्रकारों की हत्याओं के तरीक़ों की गहराई से जानकारी मुहैया कराई गई है.

यूनेस्को की ये ताज़ा रिपोर्ट जारी किये जाने के अवसर पर ही, संगठन ने वैश्विक स्तर पर एक जागरूकता अभियान भी शुरू किया है जिसका नाम है – Protect Journalists. Protect the Truth – पत्रकारों की हिफ़ाज़त करें. सत्य को बचाएँ.

यूनेस्को का कहना है, “अब भी बहुत सी हत्याएँ होती हैं और कम घातक हमले व प्रताड़ना और परेशान किये जाने के मामले अब भी बढ़ रहे हैं."

"वर्ष 2020 में, पत्रकारों के सामने दरपेश ख़तरे और भी उजागर हुए हैं. मसलन, दुनिया भर में, ब्लैक लाइव्स मैटर - Black Lives Matter जैसे और इसी तरह के अन्य प्रदर्शनों की रिपोर्टिंग करते हुए उन्हें ज़्यादा ख़तरों का सामना करना पड़ा.”

प्रदर्शन ख़तरे

यूनेस्को ने वर्ष 2020 के आरम्भ में 65 देशों में हुए ऐसे 125 प्रदर्शनों की पहचान की थी  जिनमें पत्रकारों पर या तो हमले किये गए, या उन्हें गिरफ़्तार किया गया, और ये प्रदर्शन 1 जनवरी 2015 से लेकर 30 जून 2020 के बीच हुए.

इनमें से 21 प्रदर्शन वर्ष 2020 की पहली छमाही के दौरान हुए, लेकिन वर्ष 2020 के दूसरे हिस्से के दौरान पत्रकारों को गिरफ़्तार किये जाने या उन्हें हमलों का निशाना बनाए जाने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी देखी गई है.

यूनेस्को का कहना है कि इनके अतिरिक्त, महिला पत्रकारों की सुरक्षा का मुद्दा अब भी चिन्ता का एक बड़ा कारण है. “महिला पत्रकारों को, पत्रकारिता के उनके पेशे और लिंग के लिये हमलों का निशाना बनाया जाता है और महिला पत्ररकार, ख़ासतौर से लिंग आधारित प्रताड़ना और हिंसा का भी सामना करती हैं.”

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Unsplash/Jovaughn Stephens//एक प्रेस गतिविधि को कवर करते हुए एक वीडियो पत्रकार

Saturday, December 12, 2020

पूरा देश किसानों के पीछे एकजुट है

  राष्ट्र को सावधानी, लोगों को चेतावनी  

यह कुछ भी नहीं था कि मोदी सरकार ने योजना आयोग को खत्म कर दिया। उनके लिए जवाहरलाल नेहरू से जुड़ी हर चीज एक अभिशाप थी। नीति आयोग आरएसएस नियन्त्रित भाजपा की देन था जो योजना आयोग के विकल्प की अवधारणा के रूप में आया है। क्योंकि उन्हें लगता था कि योजना शब्द ही समाजवाद की ओर एक कदम था। 

नीति आयोग एक चमचमाती हुई प्रोफाइल का प्रतिनिधित्व करता है- ‘नेशनल इंस्टीट्यूट फाॅर ट्रांसफार्मिंग इंडिया‘। कुछ ही समय में यह संस्थान मोदी सरकार के विचारों और कामों का आईना बन गया। कई बार नीति आयोग मोदी सरकार की नीतिगत दिशाओं का एक सिद्ध अग्रदूत था। आज वे जिसकी चर्चा करते हैं कल वह एक विचार के रूप में सरकार का मार्गदर्शक सिद्धांत बन जाएगा। वास्तव में यही कारण है कि देश ने हाल ही में नीति आयोग के सीईओ द्वारा दिए गए बयान का बैचेनी के साथ संज्ञान लिया। वह स्वराज पत्रिका द्वारा आयोजित एक वेबिनार, ‘द रोड टू आत्मनिर्भर भारत‘ को संबोधित कर रहे थे। उनके अनुसार ‘बहुत अधिक लोकतंत्र भारत की प्रगति के लिए मुख्य बाधा है‘। यह एक दर्शन का रहस्योद्घाटन था जो लोकतंत्र को आत्मनिर्भर भारत के लिए एक काउंटर करंट के रूप में रेखांकित करता है। जबकि पूरा देश उन किसानों के पीछे एकजुट है जो कृषि में न तथाकथित सुधारों के खिलाफलड़ रहे हैं। तो नीति अयोग प्रमुख रोना रो रहे हैं कि भारत में कठिन सुधार मुश्किल हैं। उन्होंने अपनी सरकार की प्रशंसा में कोई शब्द नहीं कहे जिसने सभी क्षेत्रों कोयला, श्रम, कृषि में सुधार लाने में हठपूर्ण कुशलता दिखाई है। भारत में हर राष्ट्र को सावधानी, लोगों को चेतावनी कोई जानता है कि देश में सुधार के नाम पर क्या हो रहा है। जीवन के सभी क्षेत्रों में एफडीआई सरकार के लिए मुक्ति मंत्र बन गया है। उनकी आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना स्वयं ही विदेशी पंूजी के पास गिरवी है। लगभग सभी सुधार जिनकों उन्होंने बढाया है लोकतंत्र की नींव पर चोट हैं। भारत में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक लोकतंत्र लगातर इन हठी सुधारों को शुरू करने वालों से खतरे में है। संगठित होने, मतान्तर रखने और विरोध करने के बुनियादी अधिकारों का दमन किया जा रहा है। राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर दस्तक दे रहे देश के अन्नदाताओं को लोतंत्र के उस दुर्ग में प्रवेश से रोक दिया गया है जहां चुनी हुई सरकारें बैठती हैं। भारत में लोकतंत्र के बारे में बोलने के सामने सीमेंट की बाधाएं, कंटीली तारें, पानी की बौछारें और आंसू गैस के गोले हजारो अर्धसैनिक बलों के साथ तैनात कर दिये गये हैं। नीति आयोग उस राह को समझता होगा जिससे धारा 370 को खत्म किया गया है, सीएए, एनआरसी सुधार लागू किये गये, और देश में श्रम सुधार थोपे गये। उन्हें संविधान के अनुच्छेद 14, 29 और 21 में समाहित अधिकारों की बुनियादी समझ होगी। किसान, मजदूर, छात्र, दलितों और समाज के दूसरे वंचित तबको को इन हठी सुधारों पर सवाल करने के अधिकार हैं। यह सुधार एक लोकतान्त्रिक देश में गरिमापूर्ण जीवने जीने के उनके अविच्छेद अधिकारों को प्रभावित करते हैं। बहस करने, असहमति रखने और विरोध कराने का अधिकार इसका हिस्सा है। नीति आयोग को भारतीय जनता के बीच चल रहे असंतोष को समझना चाहिए। इसके पीछे का कारण लोकतंत्र की प्रचुरता नहीं है बल्कि धन और जीवन की बढ़ती विषमता है। महामारी के दिनों में प्रोत्साहन पैकेज ने गरीबों के लिए कोई न्याय नहीं किया था। प्रवासी मजदूर, घरेलू सहायक और सफाई मजदूरों को भूला दिया गया था। यह तुच्छ लाभ जिन्हें दिये गये उनमें से अधिकांश तक नहीं पहुंचे। अर्थव्यवस्था का संकट ‘ईश्वर के कृत्य के कारण‘ या बहुत अधिक लोकतंत्र के कारण नहीं था। नीति अयोग द्वारा विकसित की गई नीतियां और सरकार द्वारा कार्यान्वित भारत के गहरे संकट के पीछे का कारण है। सत्तारूढ़ हलकों का इरादा विलफुल डिफाल्टर्स और विदेशी पूंजी को रियायतें प्रदान करके इसे हल करना है। हर जगह एक और एकसमान ही सवाल है कि मुनाफा अथवा जनता? यहां नीति आयोग दूरगामी प्रभाव वाले खतरनाक प्रस्तावों के साथ आ रहा है। यह सरकार का मागदर्शन अधिक से अधिक भयावह कानून अपनाने के लिए कर रहा है। यह लोगों के प्रतिरोध का गला घोंटने के लिए हैं ताकि बडों के लिए पूंजी की मस्ती बिना रूकावट के चलती रहे। सीईओ ने अपने भाषण में भारी मात्रा में राजनीतिक दृढ़ संकल्प के लिए आग्रह किया। यह सरकार से अधिक से अधिक दमनकारी कानूनों के साथ आगे बढ़ने का आह्वान है। राष्ट्र के लिए सावधानी और लोगों को चेतावनी। 

मुक्ति संघर्ष के तारीख  13 से  19 दिसंबर 2002 अंक में से साभार 

किसानों  पर आरोप लगाने वालों को खुद किसान  ही दे रहे हैं जवाब 

श्याम मीरा सिंह की तरफ से किसान धरने के दौरान क्लिक की गई एक तस्वीर
जिस पर अलग से भी एक विशेष पोस्ट दी जा रही है--रेक्टर कथूरिया