Sunday, May 13, 2018

कामरेड गुरमेल हूंझण की क़ुरबानी को याद करना ज़रूरी

....उसी तरह के खतरे  फिर मंडरा रहे हैं... 
लुधियाना: 13 मई 2018: (मीडिया स्क्रीन ब्यूरो)::
आतंक का ज़माना था। जून-84 और नवम्बर-84 गुज़र चुके थे लेकिन इस सम्बन्ध में भडकी आग शांत होने का नाम ही नहीं ले रही थी। कब किस तरफ से गोली आयेगी कोई नहीं जानता था। कब बम धमाका होगा किसी को पता न होता। हर रोज़ आंगन में आने वाले अखबार खून से लथपथ होते। समाज में विभाजन रेखा खींची जा  चुकी थी। अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने में लगे गरीब और श्रमिक वर्गों को कुछ साज़िशी लोगों ने अपना निशाना बनाया और उन्हें "हिन्दु राष्ट्र"  और "खालिस्तान" के सपनों में उलझा दिया। इस साज़िश ने न जाने कितने घर तबाह कर दिए। पांच दरियाओं की इस पावन धरती पर खून का छठा दरिया बहने लगा। हत्या एक आम बात बन गयी थी। उस नाज़ुक दौर में जब लोग सांस लेते समय भी डरने लगे थे। उस समय वाम दलों ने नारा लगाया था:
 हिन्दु राज न खालिस्तान--जुग जुग जीवे हिंदुस्तान। 
इस नारे को लगाते वाम नेता और वर्कर गाँव गाँव जाते।  शहर के बाज़ारों से काफिले बना कर निकलते। उस दौर में वाम की इस जोशीली पहल ने समाज को टूटने से बचाये रखा। इस अभियान में बहुत से कामरेड शहीद हो गए। 
हिंसा की यह गर्म हवा अहमदगढ़ और आस पास के क्षेत्रों में भी आंधी की तरह चली। आये दिन चलतीं गोलियों की बौछारों ने एक दिन-14 मई 1989 को लोगों से जुड़े हुए कामरेड गुरमेल हूंझण और उनके एक साथी/बाडीगार्ड  जोगिंदर सिंह को शहीद कर दिया। 
यह सब उनके गाँव पंधेरखेड़ी में सुबह सुबह हुआ था। कामरेड गुरमेल सुबह सुबह दैनिक रूटीन के मुताबिक घर से निकले। घर से का इशारा हत्यारों को एक धार्मिक स्थल के स्पीकर की आवाज़ अचानक काम करके दे दिया गया। अभी कुछ कदम ही गए थे कि  हत्यारों ने घेर लिए। कामरेड गुरमेल और उनके जांबाज़ साथी को शहीद कर दिया गया। 
कामरेड गुरमेल की स्मृति को लेकर गाँव पंधेरखेड़ी में हर बरस आयोजन होते हैं। माहौल बिलकुल मेले जैसा होता है। रिश्तेदारों के साथ साथ वे सब लोग भी पहुंचते हैं जिनका कामरेड गुरमेल का साथ विचारधारा का रिश्ता है।  वे लोग भी पहुँचते हैं जो इस समाज को अभी भी बदलना चाहते हैं। 
आतंक और फाशी शक्तियां अब अपना रूप बदल चुकी हैं। इस वक़्त माहौल ज़्यादा नाज़ुक है। आतंक अब गैंगस्टर और दंगई बन कर सामने आ रहा है।  इस समय कामरेड गुरमेल और उनके साथियों की क़ुरबानी को याद करना बहुत ज़रूरी है। अच्छा हो अगर मंच पर सियासत की बमाहौल जाये कामरेड गुरमेल को बातें हों।  जिस खतरनाक में कामरेड ने शहादत दी उस दौर के खतरों की बात हो। माहौल फिर खराब है। हवा में ज़हर घोली जा रहे है।