Friday, December 25, 2020

प्रेस आज़ादी पहले से कहीं ज़्यादा अहम,

  59 मीडियाकर्मियों की हत्याओं की निन्दा 

Unsplash/Jovaughn Stephens//एक प्रेस गतिविधि को कवर करते हुए एक वीडियो पत्रकार

23 दिसम्बर 2020//कानून और अपराध की रोकथाम

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक संगठन (UNESCO) ने बताया है कि वर्ष 2020 के दौरान, अभी तक कम से कम 59 मीडियाकर्मी मारे गए हैं, जिनमें चार महिलाएँ भी हैं. संगठन ने बुधवार को ये आँकड़े जारी करते हुए, सूचना प्राप्ति और तथ्यात्मक पत्रकारिता को एक सार्वजनिक अच्छाई के रूप में क़ायम रखने के समर्थन में खड़े होने की पुकार भी लगाई.

यूनेस्को ने बुधवार को जारी एक वक्तव्य में कहा कि पिछले एक दशक के दौरान, औसतन, हर चार दिन में एक पत्रकार को अपनी ज़िन्दगी गँवानी पड़ी है. 

यूनेस्को की महानिदेशक ऑड्री अज़ूले ने कहा है कि अलबत्ता, वर्ष 2020 में, पत्रकारों की मौतों की संख्या तुलनात्मक रूप में सबसे कम रही है.

लेकिन ये भी सच है कि लोकतंत्र और मानवाधिकारों की हिफ़ाज़त के लिये, शायद ही पत्रकारिता की इतनी अहमियत रही हो, क्योंकि दुनिया, कोरोनावायरस और उसके आसपास मौजूद दुष्प्रचार व ग़लत जानकारी के फैलाव के वायरस से भी जूझ रही है.

सत्य की सुरक्षा

ऑड्री अज़ूले ने कहा है कि कोरोनावायरस महामारी, एक ऐसा सटीक तूफ़ान साबित हुई है जिसने दुनिया भर में प्रेस स्वतंत्रता को प्रभावित किया है.

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि पत्रकारिता की सुरक्षा करना, दरअसल सत्य की हिफ़ाज़त करना है.

यूनेस्को की रिपोर्ट में कहा गया है कि लातीनी अमेरिका और कैरीबियाई क्षेत्रों में 22 – 22 पत्रकारों की हत्याएँ हुईं और इन क्षेत्रों को एशिया और प्रशान्त क्षेत्र के साथ मिलाकर कहा जाए तो, पत्रकारों की सबसे ज़्यादा हत्याएँ हुई हैं. 

इसके बाद अरब क्षेत्र में 9 और अफ्रीका में 6 पत्रकारों की हत्याएँ हुईं.

यूनेस्को का कहना है कि पत्रकारों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में, औसतन 10 में से 9 मामलों में, दंडमुक्ति यानि न्यायिक प्रक्रिया का अभाव दिखा है, हालाँकि वर्ष 2020 में कुछ बेहतरी देखने को मिली है.

वर्ष 2020 में पत्रकारों की सुरक्षा पर यूनेस्को महानिदेशक की ये रिपोर्ट, पत्रकारों के ख़िलाफ़ अपराधों में न्याय के अभाव को ख़त्म करने के अन्तरराष्ट्रीय दिवस के आसपास ही प्रकाशित ही है.

इस दिवस के अवसर पर उपलब्ध आँकड़ों में पिछले दो वर्षों के दौरान पत्रकारों की हत्याओं के तरीक़ों की गहराई से जानकारी मुहैया कराई गई है.

यूनेस्को की ये ताज़ा रिपोर्ट जारी किये जाने के अवसर पर ही, संगठन ने वैश्विक स्तर पर एक जागरूकता अभियान भी शुरू किया है जिसका नाम है – Protect Journalists. Protect the Truth – पत्रकारों की हिफ़ाज़त करें. सत्य को बचाएँ.

यूनेस्को का कहना है, “अब भी बहुत सी हत्याएँ होती हैं और कम घातक हमले व प्रताड़ना और परेशान किये जाने के मामले अब भी बढ़ रहे हैं."

"वर्ष 2020 में, पत्रकारों के सामने दरपेश ख़तरे और भी उजागर हुए हैं. मसलन, दुनिया भर में, ब्लैक लाइव्स मैटर - Black Lives Matter जैसे और इसी तरह के अन्य प्रदर्शनों की रिपोर्टिंग करते हुए उन्हें ज़्यादा ख़तरों का सामना करना पड़ा.”

प्रदर्शन ख़तरे

यूनेस्को ने वर्ष 2020 के आरम्भ में 65 देशों में हुए ऐसे 125 प्रदर्शनों की पहचान की थी  जिनमें पत्रकारों पर या तो हमले किये गए, या उन्हें गिरफ़्तार किया गया, और ये प्रदर्शन 1 जनवरी 2015 से लेकर 30 जून 2020 के बीच हुए.

इनमें से 21 प्रदर्शन वर्ष 2020 की पहली छमाही के दौरान हुए, लेकिन वर्ष 2020 के दूसरे हिस्से के दौरान पत्रकारों को गिरफ़्तार किये जाने या उन्हें हमलों का निशाना बनाए जाने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी देखी गई है.

यूनेस्को का कहना है कि इनके अतिरिक्त, महिला पत्रकारों की सुरक्षा का मुद्दा अब भी चिन्ता का एक बड़ा कारण है. “महिला पत्रकारों को, पत्रकारिता के उनके पेशे और लिंग के लिये हमलों का निशाना बनाया जाता है और महिला पत्ररकार, ख़ासतौर से लिंग आधारित प्रताड़ना और हिंसा का भी सामना करती हैं.”

Link

Unsplash/Jovaughn Stephens//एक प्रेस गतिविधि को कवर करते हुए एक वीडियो पत्रकार

Saturday, December 12, 2020

पूरा देश किसानों के पीछे एकजुट है

  राष्ट्र को सावधानी, लोगों को चेतावनी  

यह कुछ भी नहीं था कि मोदी सरकार ने योजना आयोग को खत्म कर दिया। उनके लिए जवाहरलाल नेहरू से जुड़ी हर चीज एक अभिशाप थी। नीति आयोग आरएसएस नियन्त्रित भाजपा की देन था जो योजना आयोग के विकल्प की अवधारणा के रूप में आया है। क्योंकि उन्हें लगता था कि योजना शब्द ही समाजवाद की ओर एक कदम था। 

नीति आयोग एक चमचमाती हुई प्रोफाइल का प्रतिनिधित्व करता है- ‘नेशनल इंस्टीट्यूट फाॅर ट्रांसफार्मिंग इंडिया‘। कुछ ही समय में यह संस्थान मोदी सरकार के विचारों और कामों का आईना बन गया। कई बार नीति आयोग मोदी सरकार की नीतिगत दिशाओं का एक सिद्ध अग्रदूत था। आज वे जिसकी चर्चा करते हैं कल वह एक विचार के रूप में सरकार का मार्गदर्शक सिद्धांत बन जाएगा। वास्तव में यही कारण है कि देश ने हाल ही में नीति आयोग के सीईओ द्वारा दिए गए बयान का बैचेनी के साथ संज्ञान लिया। वह स्वराज पत्रिका द्वारा आयोजित एक वेबिनार, ‘द रोड टू आत्मनिर्भर भारत‘ को संबोधित कर रहे थे। उनके अनुसार ‘बहुत अधिक लोकतंत्र भारत की प्रगति के लिए मुख्य बाधा है‘। यह एक दर्शन का रहस्योद्घाटन था जो लोकतंत्र को आत्मनिर्भर भारत के लिए एक काउंटर करंट के रूप में रेखांकित करता है। जबकि पूरा देश उन किसानों के पीछे एकजुट है जो कृषि में न तथाकथित सुधारों के खिलाफलड़ रहे हैं। तो नीति अयोग प्रमुख रोना रो रहे हैं कि भारत में कठिन सुधार मुश्किल हैं। उन्होंने अपनी सरकार की प्रशंसा में कोई शब्द नहीं कहे जिसने सभी क्षेत्रों कोयला, श्रम, कृषि में सुधार लाने में हठपूर्ण कुशलता दिखाई है। भारत में हर राष्ट्र को सावधानी, लोगों को चेतावनी कोई जानता है कि देश में सुधार के नाम पर क्या हो रहा है। जीवन के सभी क्षेत्रों में एफडीआई सरकार के लिए मुक्ति मंत्र बन गया है। उनकी आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना स्वयं ही विदेशी पंूजी के पास गिरवी है। लगभग सभी सुधार जिनकों उन्होंने बढाया है लोकतंत्र की नींव पर चोट हैं। भारत में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक लोकतंत्र लगातर इन हठी सुधारों को शुरू करने वालों से खतरे में है। संगठित होने, मतान्तर रखने और विरोध करने के बुनियादी अधिकारों का दमन किया जा रहा है। राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर दस्तक दे रहे देश के अन्नदाताओं को लोतंत्र के उस दुर्ग में प्रवेश से रोक दिया गया है जहां चुनी हुई सरकारें बैठती हैं। भारत में लोकतंत्र के बारे में बोलने के सामने सीमेंट की बाधाएं, कंटीली तारें, पानी की बौछारें और आंसू गैस के गोले हजारो अर्धसैनिक बलों के साथ तैनात कर दिये गये हैं। नीति आयोग उस राह को समझता होगा जिससे धारा 370 को खत्म किया गया है, सीएए, एनआरसी सुधार लागू किये गये, और देश में श्रम सुधार थोपे गये। उन्हें संविधान के अनुच्छेद 14, 29 और 21 में समाहित अधिकारों की बुनियादी समझ होगी। किसान, मजदूर, छात्र, दलितों और समाज के दूसरे वंचित तबको को इन हठी सुधारों पर सवाल करने के अधिकार हैं। यह सुधार एक लोकतान्त्रिक देश में गरिमापूर्ण जीवने जीने के उनके अविच्छेद अधिकारों को प्रभावित करते हैं। बहस करने, असहमति रखने और विरोध कराने का अधिकार इसका हिस्सा है। नीति आयोग को भारतीय जनता के बीच चल रहे असंतोष को समझना चाहिए। इसके पीछे का कारण लोकतंत्र की प्रचुरता नहीं है बल्कि धन और जीवन की बढ़ती विषमता है। महामारी के दिनों में प्रोत्साहन पैकेज ने गरीबों के लिए कोई न्याय नहीं किया था। प्रवासी मजदूर, घरेलू सहायक और सफाई मजदूरों को भूला दिया गया था। यह तुच्छ लाभ जिन्हें दिये गये उनमें से अधिकांश तक नहीं पहुंचे। अर्थव्यवस्था का संकट ‘ईश्वर के कृत्य के कारण‘ या बहुत अधिक लोकतंत्र के कारण नहीं था। नीति अयोग द्वारा विकसित की गई नीतियां और सरकार द्वारा कार्यान्वित भारत के गहरे संकट के पीछे का कारण है। सत्तारूढ़ हलकों का इरादा विलफुल डिफाल्टर्स और विदेशी पूंजी को रियायतें प्रदान करके इसे हल करना है। हर जगह एक और एकसमान ही सवाल है कि मुनाफा अथवा जनता? यहां नीति आयोग दूरगामी प्रभाव वाले खतरनाक प्रस्तावों के साथ आ रहा है। यह सरकार का मागदर्शन अधिक से अधिक भयावह कानून अपनाने के लिए कर रहा है। यह लोगों के प्रतिरोध का गला घोंटने के लिए हैं ताकि बडों के लिए पूंजी की मस्ती बिना रूकावट के चलती रहे। सीईओ ने अपने भाषण में भारी मात्रा में राजनीतिक दृढ़ संकल्प के लिए आग्रह किया। यह सरकार से अधिक से अधिक दमनकारी कानूनों के साथ आगे बढ़ने का आह्वान है। राष्ट्र के लिए सावधानी और लोगों को चेतावनी। 

मुक्ति संघर्ष के तारीख  13 से  19 दिसंबर 2002 अंक में से साभार 

किसानों  पर आरोप लगाने वालों को खुद किसान  ही दे रहे हैं जवाब 

श्याम मीरा सिंह की तरफ से किसान धरने के दौरान क्लिक की गई एक तस्वीर
जिस पर अलग से भी एक विशेष पोस्ट दी जा रही है--रेक्टर कथूरिया 


Sunday, November 22, 2020

भाजपा महिला मोर्चा लुधियाना देगा सीपी को ज्ञापन

 जिला अध्यक्ष मनिंदर कौर घुम्मन करेंगी अगवानी 

प्रिय  बन्धुवर,

                                सभी मीडिया साथियों को नमस्कार !

       भाजपा महिला मोर्चा लुधियाना की जिला अध्यक्ष मनिंदर कौर घुम्मन के नेतृत्व में  एक मांग-पत्र लुधियाना के सी.पी.साहब को 23 नवम्बर 2020 दिन सोमवार दोपहर 12  बजे दिया जायेगा ! 

आप सब मीडिया साथियो से अनुरोध है की इस कार्यक्रम को कवरेज करने की कृपा करें।

          धन्यवाद ! 

                                                                                              दिनांक:-- 23 नवम्बर 2020 , समय :--दोपहर 12  बजे                                                            स्थान :-- सी पी दफ्तर ,फ़िरोज़पुर रोड,लुधियाना 

 * डॉ.सतीश कुमार  dr.skumar30@rediffmail.com 

 ☎ 9815413363 ,9815999909

Tuesday, November 17, 2020

जंग के खिलाफ अभियान की कहानी बता रहे हैं डा.अरुण मित्रा

 जंग की भयानक तस्वीर को साहिर साहिब ने भी दिखाया 

लुधियाना
: 17 नवंबर 2020: (कार्तिका सिंह//मीडिया स्क्रीन ऑनलाइन)::
साहिर लुधियानवी साहिब अपनी लम्बी और संगीतमय काव्य रचना "परछाइयां" में युद्ध के पागलपन का ऐसा भयावह चित्र खींचते हैं की पढ़ते पढ़ते आँखों में आंसू आ जाते हैं। वह कहते हैं:
उस शाम मुझे मालूम हुआ, जब भाई जंग में काम आये
सरमाए के कहबाख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है
सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

इस  नज़्म के आखिर  साहिब कहते हैं:
हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी॥

कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहे,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं।

जुनूँ की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,
ज़मीं की खैर नहीं आसमाँ की खैर नहीं॥

गुज़श्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये तनहाइयाँ भी जल जायें।

गुज़श्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जायें॥

डाक्टर अरुण मित्रा और उनके सक्रिय सहयोगी साथी इस नज़्म के मकसद को बहुत पहले ही अपना चुके थे। जवानी की उम्र में जब लोग मस्ती करते हैं उस उम्र में यह लोग जंग के खिलाफ जन चेतना जगाने लगे थे। जब देश और दुनिया के बड़े बड़े असरदायिक लोग जंग का जनून भड़काने में लगे हों और जंग की ही सियासत हो रही हो उस समय जंग के खिलाफ बात करना आंधियों में दिया जलाने जैसा ही होता है लेकिन इन लोगों ने बहुत बार ऐसी कोशिशें की। अब उन कोशिशों का सुखद परिणाम सामने आ रहा है। उसी परिणाम की चर्चा करती है यह वीडियो जो डाक्टर अरुण मित्रा से हुई एक भेंट पर आधारित है। डाक्टर अरुण मित्रा से इस भेंट की प्रेरणा देने वाले वाम पत्रकार और कहानीकार एम् एस भाटिया डाक्टर मित्रा की ऐसी कोशिशों पर एक पुस्तक भी तैयार करवा रहे हैं। आप इस वीडियो को देखिये और इस पर अपने विचार भी बताएं। यह वीडियो Dr Arun Mitra on War and Nuclear Treaty इस नाम से यूट्यूब पर भी उपलब्ध है। --कार्तिका सिंह 

Monday, November 16, 2020

'उसने गांधी को क्यों मारा' का लोकार्पण यादगारी रहा

 साज़िशी हवाओं के खिलाफ जनचेतना जगाता एक सार्थक प्रयास  


नई दिल्ली: 5 अक्टूबर 2020: (कार्तिका सिंह//मीडिया स्क्रीन Online)::
महात्मा गांधी के खिलाफ निंदा प्रचार और अन्य साज़िशों का सिलसिला लगातार जारी रहा है। महात्मा गांधी की हत्या को जायज़ ठहराने  अभियान भी चलते रहे।  गांधी को लोगों के दिल दिमाग से निकला नहीं जा सका। गांधी लगातार प्रासंगिक बने रहे। उनकी आत्म कथा-सत्य के साथ मेरे प्रयोग अंग्रेजी में बिकती रही और हिंदी में भी। लोगों ने छह पुस्तकों के सेट की सौगात देना बंद नहीं किया अब गाँधी जी पर नई किताब आई है-"उसने गाँधी को क्यूं मारा।" इस पुस्तक पर एक विशेष चर्चा भी हुई। हम उसका साराँश राजकमल प्रकाशन से साभार यहां भी दे रहे हैं। गांधी पर चर्चा आज के असहनशील युग में फिर एक बहुत बड़ी ज़रूरत भी है। सत्य और सहनशीलता से दूर हो रहे समाज को गांधी एक बार फिर से राह दिखा सकते हैं। गांधी की पुस्तकों को सम्मान सहित पढ़ा जाया या फिर उनके बुतों पर कालख पोती जाए इससे फर्क गांधी को नहीं इस समाज को ही पढ़ने वाला है। गाँधी की शख्सियत इन सभी बातों से बहुत ऊंची उठ चुकी है। गांधी जी की हत्या के बाद उन पर जितने भी हमले हुए हैं उनसे गांधी जी की वैचारिक प्रतिमा और मज़बूत हो कर उभरी है।  प्रस्तुत है उस रिपोर्ट का सारांश:
2 अक्टूबर, 2020 को महात्मा गांधी की 151वीं जयंती के अवसर पर चर्चित कवि-इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय की पुस्तक ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ का लोकार्पण एवं उस पर बातचीत 'राजकमल' के फ़ेसबुक लाइव कार्यक्रम में हुई। उल्लेखनीय है कि यह कार्यक्रम बहुत रोचक रहा। 

कार्यक्रम में चिन्तक-इतिहासकार सुधीर चन्द्र, इतिहासकार मृदुला मुखर्जी, राज्यसभा सांसद मनोज कुमार झा, हिन्दी के महत्त्वपूर्ण लेखक जयप्रकाश कर्दम और अशोक कुमार पांडेय शामिल रहे। किताब पर बात करते हुए मनोज कुमार झा ने कहा कि हिन्दी पाठक वर्ग के पास एक ऐसी किताब पहुँच रही है जो गांधी जी की प्रतिमा, चश्मा, पहनावे और उनके प्रतीकों से ऊपर उठकर कुछ बुनियादी सवालों पर है। आज के दौर में गांधी की प्रासंगिकता पर बात करते हुए जयप्रकाश कर्दम ने कहा कि गांधी का होना इतिहास की बहुत बड़ी घटना है। वह एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक ऐसा संस्थान हैं जो प्रेम, सद्भाव और अहिंसा के मूल्यों पर खड़ा है। यह प्रेम, सद्भाव और अहिंसा सिर्फ़ मूल्य ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र का आधार हैं।

अशोक कुमार पांडेय ने अपनी किताब के बारे में बताते हुए कहा कि मैंने ऐसे विषय पर किताब लिखी है जिस पर बहुत लोग लिख चुके हैं। मैंने आर्काइव्स, ख़ास तौर पर 'कपूर कमीशन' की रिपोर्ट में गहरे जाकर चीज़ों को सामने लाने की कोशिश की है। बातचीत को आगे बढ़ाते हुए सुधीर चन्द्र ने विचार व्यक्त किया कि आज हमें इस आधुनिक युग के ि‍ख़लाफ़ एक असहयोग आन्दोलन की ज़रूरत है। गांधी ने कहा था 'न' कहना सीखो, आज फिर हमें 'न' कहना सीखना होगा। अगर गांधी का कोई भी महत्त्व है हमारे जीवन में तो हमें यह सोचना होगा कि अगर हम इस महत्त्व की बातें करते रहें तो क्या होना है। अशोक कुमार पांडेय की किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है और हमें यह सवाल भी उठाना है कि किस-किसने गांधी को मारा? और जब गांधी के मारे जाने की बात होती है, तब हमें यह भी याद रखना होगा कि गांधी किसी के मारे नहीं मरते हैं। गांधी तब तक जीवित रहेंगे जब तक यह सभ्यता है। इस सभ्यता के लिए गांधी के पास एक ऐसा सन्देश है,

जिस पर अमल करके मानव अपने आपको विकसित कर सकता है। कार्यक्रम का संचालन ऐश्वर्या ठाकुर ने किया।

ज्ञात हो कि इसी दिन एक अन्य कार्यक्रम जो ‘कलिंगा लिटरेरी फ़ेस्टिवल’ में आयोजित था, वहाँ भी 'उसने गांधी को क्यों मारा' पुस्तक पर बातचीत का आयोजन किया गया। अशोक कुमार पांडेय के साथ महत्त्वपूर्ण कथाकार वंदना राग ने पुस्तक पर बातचीत की। वंदना राग ने पुस्तक से कुछ अंशों का पाठ भी किया जो काफ़ी प्रभावशाली रहा।   

Sunday, November 15, 2020

केबीसी में मनुस्मृति दहन पर प्रश्न से मचा बवाल

15th November 2020 at 9:20 AM

 राम पुनियानी कर रहे हैं उस दिन के बवाल की चर्चा 

‘कौन बनेगा करोड़पति’ (केबीसी) सबसे लोकप्रिय टीवी कार्यक्रमों में से एक है।  इसमें भाग लेने वालों को भारी भरकम धनराशि पुरस्कार के रूप में प्राप्त होती है। हाल में कार्यक्रम के ‘कर्मवीर’ नामक एक विशेष एपीसोड में अमिताभ बच्चन ने पहले से तैयार स्क्रिप्ट के आधार पर यह प्रश्न पूछा कि उस पुस्तक का क्या नाम है जिसे डॉ अम्बेडकर ने जलाया था। सही उत्तर था ‘मनुस्मृति।’   उस दिन के कार्यक्रम के अतिथि थे वेजवाड़ा विल्सन। जो जानेमाने जाति-विरोधी कार्यकर्ता हैं और लंबे समय से हाथ से मैला साफ करने की घृणित प्रथा के विरूद्ध आंदोलनरत हैं। 

इस प्रश्न पर दर्शकों के एक हिस्से की त्वरित प्रतिक्रिया हुई। कुछ लोगों ने प्रसन्नता जाहिर की कि इस प्रश्न से उन्हें उस पुस्तक के बारे में जानकारी मिली जो भयावह जाति व्यवस्था को औचित्यपूर्ण ठहराती है। परंतु अनेक लोग इस प्रश्न से आक्रोशित हो गए। इन लोगों ने इसे हिन्दू धर्म का अपमान और हिन्दू समुदाय को विभाजित करने का प्रयास निरूपित किया। यह ट्वीट उनके विचारों को सारगर्भित ढ़ंग से प्रतिबिंबित करती है “ऐसा लगता है कि ये लोग किसी भी तरह बीआर अम्बेडकर को हिन्दू विरोधी बताना चाहते हैं जबकि यह सही नहीं है। ये लोग हिन्दू समाज को जाति के आधार पर विभाजित करने पर उतारू हैं....‘‘

लेखक डा. राम पुनियानी 
केबीसी के मेजबान और कार्यक्रम से जुड़े अन्य व्यक्तियों के विरूद्ध हिन्दुओं की भावनाएं आहत करने का आरोप लगाते हुए एक एफआईआर दर्ज करवाई गई है। हिन्दू राष्ट्रवादी विमर्श यह साबित करना चाहता है कि अम्बेडकर के विचार उससे मिलते हैं। ये लोग एक ओर अम्बेडकर का महिमामंडन करते हैं तो दूसरी ओर दलितों की समानता के लिए उनके संघर्ष और उनके विचारों को नकारना चाहते हैं। आरएसएस और उसके संगी-साथी बड़े पैमाने पर अंबेडकर जयंती मनाते हैं। सन् 2016 में ऐसे ही एक कार्यक्रम में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि वे अंबेडकर भक्त हैं। उन्होंने अंबेडकर की तुलना मार्टिन लूथर किंग जूनियर से की थी। इन्हीं मोदीजी ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘कर्मयोग’. इस पुस्तक में कहा गया था कि वाल्मिीकियों द्वारा हाथ से मैला साफ करना, उनके (वाल्मिीकियों) लिए एक आध्यात्मिक अनुभव है। यह दिलचस्प है कि इस कार्यक्रम के अतिथि डॉ बेजवाड़ा विल्सन, हाथ से मैला साफ करने की अमानवीय प्रथा के विरूद्ध कई दशकों से संघर्ष कर रहे हैं।

यह भी दिलचस्प है कि जो लोग मनुस्मृति दहन की चर्चा मात्र को हिन्दू भावनाओं को ठेस पहुंचाना निरूपित करते हैं वे ही पैगम्बर मोहम्मद का अपमान करने वाले कार्टूनों के प्रकाशन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताते हैं। इन कार्टूनों के प्रकाशन के बाद हुए त्रासद घटनाक्रम में फ्रांस में चार लोगों की जान चली गई।  इन लोगों की हत्या करने वाले इसलिए उद्धेलित थे क्योंकि कार्टूनों के प्रकाशन से उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची थी। 

अंबेडकर एक अत्यंत प्रतिभाशाली और उच्च दर्जे के बुद्धिजीवी थे। उन्होंने पूरे देश में जाति और अछूत प्रथा के खिलाफ लंबा संघर्ष किया और हिन्दू धर्म की खुलकर आलोचना की. वे हिन्दू धर्म की ब्राम्हणवादी व्याख्या के कड़े विरोधी थे। वे कबीर को अपना गुरू मानते थे। उनके जीवन और लेखन से हमें पता चलता है कि वे भक्ति परंपरा के पैरोकार थे परंतु उनका मानना था कि हिन्दू धर्म, ब्राम्हणवाद के चंगुल में फंसा हुआ है। वे हिन्दू धर्म को ब्राम्हणवादी धर्मशास्त्र कहते थे। उन्होंने दलितों को पीने के पानी के स्त्रोतों तक पहुंच दिलवाने (चावदार तालाब) और अछूतों को मंदिर में प्रवेष का अधिकार सुलभ करवाने (कालाराम मंदिर) के लिए आंदोलन चलाए थे। वे मनुस्मृति को ब्राम्हणवादी सोच की पैरोकार और प्रतीक मानते थे और इसलिए उन्होंने इस पुस्तक, जिसे हिन्दुओं का एक तबका पवित्र ग्रंथ मानता है, का सार्वजनिक रूप से दहन किया था। आज कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि अब मनुस्मृति की चर्चा व्यर्थ है क्योंकि इस पुस्तक को न तो कोई पढ़ता है और ना ही उसमें कही गई बातों को मानता है। यह सही है कि इस संस्कृत पुस्तक को अब शायद ही कोई पढ़ता हो। परंतु यह भी सही है कि इसमें वर्णित मूल्यों में आज भी हिन्दुओं के एक बड़े तबके की आस्था है। गीता प्रेस पर अपनी पुस्तक में अक्षय मुकुल बताते हैं कि गोरखपुर स्थित इस प्रकाशन का हिन्दू समाज की मानसिकता और दृष्टिकोण गढ़ने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गीता प्रेस के स्टाल देश के अनेक छोटे-बड़े रेलवे स्टेशनों पर हैं और इनमें इस प्रकाशन की पुस्तकें, जिनकी कीमत बहुत कम होती है, उपलब्ध रहती हैं। गीता प्रेस की पुस्तकें मनुस्मृति के मूल्यों का ही प्रसार करती हैं। महिलाओं के कर्तव्यों पर गीता प्रेस की एक पुस्तक को पढ़कर मुझे बहुत धक्का लगा क्योंकि इसमें मनुस्मृति के मूल्यों को ही आसानी से समझ आने वाली भाषा में वर्णित किया गया था। मुझे यह देखकर और धक्का लगा कि इस पुस्तक का मूल्य मात्र पांच रूपये था और इसकी मुद्रित प्रतियों की संख्या पांच लाख से अधिक थी। 

ऐसा दावा किया जाता है कि अंबेडकर हिन्दू-विरोधी थे. इस सिलसिले में हमें उनके स्वयं के शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा था “हिन्दू धर्म, जाति की अवधारणा पर केन्द्रित कुछ सतही सामाजिक, राजनैतिक और स्वच्छता संबंधी नियमों के संकलन के अलावा कुछ नहीं है।” अम्बेडकर का यह कथन तो प्रसिद्ध है ही कि “मैं एक हिन्दू पैदा हुआ था परंतु एक हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं।” हिन्दू राष्ट्र, जिसकी स्थापना हमारी वर्तमान सरकार का लक्ष्य है, के बारे में भी अंबेडकर के विचार स्पष्ट थे। देश के विभाजन पर अपनी पुस्तक में उन्होंने लिखा था, “अगर हिन्दू राज वास्तविकता बनता है तो वह इस देश के लिए सबसे बड़ी विपत्ति होगी। हिन्दू चाहे जो कहें, हिन्दू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए बहुत बड़ा खतरा है और इस कारण वह प्रजातंत्र से असंगत है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।”

इन सब मुद्दों पर अंबेडकर के इतने स्पष्ट विचारों के बाद भी नरेन्द्र मोदी और उनके साथी एक ओर अंबेडकर का महिमामंडन कर रहे हैं तो दूसरी ओर उनकी विचारधारा और उनकी सोच को समाज से बहिष्कृत करने के लिए हर संभव यत्न कर रहे हैं। मोदी कैम्प से अक्सर भारतीय संविधान के विरोध में आवाजें उठती रहती हैं। वे चाहते हैं कि इस संविधान के स्थान पर एक नया संविधान बनाया जाए। दलित समुदाय में घुसपैठ करने के लिए वे हर संभव रणनीति अपनाते रहे हैं। जहां अंबेडकर जाति के उन्मूलन के हामी थे वहीं संघ परिवार सामाजिक समरसता मंचों के जरिए यह प्रचार करता है कि जाति व्यवस्था ही हिन्दू धर्म की ताकत है और यह भी कि सभी जातियां बराबर हैं।  दलितों को हिन्दुत्व की विचारधारा से जोड़ने के लिए सोशल इंजीनियरिंग की जा रही है। कई कुटिल तरीकों से दलितों को हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति का प्यादा बना दिया गया है। कुछ दलित नेताओं को सत्ता का लालच देकर हिन्दू राष्ट्रवादी कैम्प में शामिल कर लिया गया है। हाल में चिराग पासवान ने कहा था कि वे मोदी के हनुमान हैं। 

अंबेडकर के वैचारिक और सामाजिक संघर्षों से प्रेरणा लेकर दलित नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक हिस्सा दलितों की गरिमा और उनकी सामाजिक समानता के लिए संघर्ष कर रहा है। समस्या यह है कि ऐसे नेताओं / कार्यकर्ताओं की संख्या बहुत कम है। इसके अतिरिक्त, उनमें परस्पर विवाद और बिखराव हैं। अगर इन समस्याओं पर काबू पाया जा सके तो बाबासाहेब के उन सपनों को साकार करने में हमें मदद मिलेगी जिन्हें साकार करने के लिए उन्होंने मनुस्मृति का दहन किया था।   (11 नवंबर 2020)

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं। )

Tuesday, November 3, 2020

4 को अकालीदल करेगा मंत्री भारतभूषण आशु का घेराव

 बिक्रमजीत सिंह मजीठिया के नेतृत्व में होगा घेराव 

लुधियाना: 3 नवंबर 2020: (मीडिया स्क्रीन ऑनलाइन)::

फाईल फोटो 
भाजपा का साथ छोड़ने के  बाद अकालीदल अधिक सक्रिय हो गया है। इसी सक्रियता को जारी रखते हुए अकाली दाल ने कल 4 नवंबर 2020 को सुबह 11:30 बजे पंजाब में कांग्रेस सरकार के सक्रिय मंत्री भारत भूषण आशु के घर का घेराव करना है। यह कदम राशन घोटाले को लेकर उठाया जा रहा है। 

अकाली दल के इस एक्शन की सारी बागडोर वरिष्ठ अकाली नेता गुरदीप सिंह गोशा के हाथ में दी गई है जबकि एक्शन का नेतृत्व करेंगे वरिष्ठ अकाली लीडर बिक्रम सिंह मजीठिया। 

इसी बीच गढ़शंकर में कांग्रेस पार्टी की नेत्री निमिषा मेहता कह चुकी हैं कि यदि अकाली दल सचमुच कृषि बिलों का विरोधी होता तो भाजपा नेताओं का घेराव कर रहा होता। 

इस अकाली घेराव और धरने के संबंध में किसी पत्रकार ने कोई जानकारी लेनी हो तो इस एक्शन के इंचार्ज जत्थेदार गुरदीप सिंह गोशा से ली जा सकती है उनका नंबर है:9646744444

इस धरने के बाद अकालीदल के केडर में नया जोश आने की संभावना बताई जा रही है। इस धरने के बाद स्थिति क्या रुख लेती है इसका सही पता तो वक़्त आने पर ही चलेगा। 


Monday, November 2, 2020

DGP पंजाब ने दिया पत्रकारों को निष्पक्ष जांच से न्याय का भरोसा

पत्रकारों की प्रतिनिधिता की अमरिंदर सिंह और हरप्रीत जस्सोवाल ने 


चंडीगढ़
//खरड़//कुराली: 2 नवम्बर 2020:  (मीडिया स्क्रीन Online टीम )::

समाज के समुचित विकास और सुरक्षा के लिए पुलिस भी अग्रसर रहती है और पत्रकार भी अपनी डयूटी तनदेही से निभाते हैं। प्रेस और पुलिस का यह रिश्ता कई बार नाज़ुक पड़ावों  गुज़रता है लेकिन खट्टे मीठे अनुभवों  के बावजूद कभी भी टूटता नहीं। एक बार फिर इसे टूटने से बचाया है डीजीपी दिनकर गुप्ता ने। 

इस तरह के वरिष्ठ पुलिस अधिकारीयों और की सुखद बातों के बावजूद अलग अलग स्थानों से पत्रकारों के साथ पुलिस द्वारा कुछ  ज़्यादती की खबरें आम होने लगीं हैं। कहीं किसी पत्रकार से कैमरा छीन लिया  जाता है और कहीं पर मोबाईल।  इसी तरह की बहुत सी बातों  के दरम्यान उभर कर सामने आई शहीद भगत सिंह प्रेस एसोसिएशन। पंजाब का शायद ही कोई इलाका बचा हो जहां इस संगठन की पहुंच न हुई हो।  उम्र और अनुभव  में छोटे बड़े सभी पत्रकार इस संगठन में सक्रिय हैं। इस संगठन का कार्यमन्त्र है-पहले विनम्रता और प्रेम से अपनी समस्या हल करने और करवाने का प्रयास करो अगर इसे कमज़ोरी समझा जाए तो फिर लोकतान्त्रिक राह अपनाते हुए एकजुटता की शक्ति का प्रदर्शन करो तांकि विजय प्राप्त हो सके। 

इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ।  पुलिस के साथ किसी मुद्दे पर बहस हुई तो मामला टूल पकड़ गया। दोनों तरफ की ज़िद। पत्रकारों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ तो बात और बिगड़ गई। मामला पांच नवंबर को पुलिस अधिकारिओं के पुतले जलाने की घोषणा तक पहुँच गया। 

पंजाब के बहुत महत्वपूर्ण ज़िले फाजिल्का में भी पुलिस और प्रेस के दरम्यान टकराव जैसी स्थिति बन गई। संगठन से जुड़े सूत्रों के मुताबिक बात आर पार जैस जंग जैसी बन गई। 

भारत के और भी बहुत सारे राज्यों में पत्रकारों के साथ हो रही बे इंसाफी के खिलाफ आज शहीद भगत सिंह प्रेस एसोसिएशन का एक स्टेट लेवल का डेलिगेशन पंजाब के डीजीपी दिनकर गुप्ता से मिलने उनके चंडीगढ़ ऑफिस में गया जिसकी अगुवाई शहीद भगत सिंह प्रेस एसोसिएशन के राष्ट्रीय चेयरमैन अमरिंदर सिंह और राष्ट्रीय जनरल सेक्टरी हरप्रीत सिंह जस्सोवाल ने की ओर उनके साथ रितिष राजा सेक्टरी ट्राइसिटी, हरपाल सिंह भंगू-प्रधान जिला अमृतसर, हरमिंदर सिंह नागपालजनरल सेक्टरी ट्राइसिटी, धरमिंदर सिंगला एडवाइजर,  शमशेर सिंह बग्गा  प्रधान जिला रोपड़, मनीष शंकर प्रधान जिला मोहाली, कुलदीप कुमार वाइस प्रेसिडेंट ट्राइसिटी, विजय जिंदल जीरकपुर, रोहित कुमार सीनियर पत्रकार, अमित कुमार एडवाइजर ओर रवी शर्मा और जगदीश सिंह खालसा इत्यादिकई पत्रकार शामिल थे ।

हरप्रीत सिंह जस्सोवाल, रितिष राजा ओर कुलदीप कुमार ने कहा के देश भर के पत्रकारों के हक में स्टैंड लेने वाली एकमात्र पत्रकार संस्था शहीद भगत सिंह प्रेस एसोसिएशन जो कि हमेशा ही किसी भी पत्रकार के साथ हुई नाइंसाफी के खिलाफ पत्रकारों के साथ खड़ी होती है आज पंजाब के हर जिले समेत भारत के अलग-अलग राज्य में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, जम्मू कश्मीर, यूपी, महाराष्ट्र, चेन्नई, वेस्ट बंगाल में और ओर भी कई राज्यों में लोकप्रियता के साथ आगे बढ़ रही है।

आज फील्ड में काम करने वाले हजारों पत्रकार इस प्रेस एसोसिएशन के परिवार का मेंबर बन चुके हैं ।

 डीजीपी पंजाब से बातचीत के दौरान शिष्टमंडल का नेतृत्व कर रहे चेयरमैन अमरिंदर सिंह, धरमिंदर सिंगला ओर हरपाल भंगू ने बताया कि पूरे भारत में पुलिस द्वारा पत्रकारों पर नाजायज झूठे पर्चे दर्द करके उन्हें परेशान किया जा रहा है और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को उनका कार्य करने से रोका जा रहा है जो कि भारत के संविधान के विरुद्ध है। इसी गलत सोच के चलते पंजाब के विभिन्न हिस्सों में पत्रकारों पर दर्ज किए जा रहे झूठे पर्चे दर्ज किए जा रहे है और यह सब राजनीतिक व अन्य दबाव के चलते हो रहा है। 

हरमिंदर सिंह नागपाल , शमशेर सिंह बग्गा ओर कुलदीप कुमार ने कहा कि पंजाब के महत्वपूर्ण ज़िले फाजिल्का में काम कर रहे दो पत्रकारों सुनील सैन और राजू आज़मवालिया पर जिला बार एसोसिएशन फाजिल्का के दबाव मे एक ही मामले मे दो मुकदमो को लेकर उच्च स्तरीय जांच करवाने और इसी मामले मे फाजिल्का सीआईए प्रभारी नवदीप भट्टी ने फोन कर बातचित के दोरान राष्ट्रिय प्रधान रंजीत सिंह मसौन से गाली गलौच कर उन्हे उकसाया और प्रधान मसोन पर गाली गलोच करने का फाजिल्का मे पर्चा दर्ज करने के मामले मे जांच करने व नवदीप भट्टी का डोप् टेस्ट करवाने की मांग करते हुए एक मांग पत्र भी सौंपा गया ।

जिस पर डीजीपी साहब ने मामले की गंभीरता को देखते हुए करवाने इस सारे मामले की निष्पक्ष जांच आई जी फरीदकोट को सोंपते हुए पत्रकारों को इंसाफ दिलवाने का आश्वासन देते हुए कहा की पत्रकारों और पुलिस के रिश्तों को किसी भी कीमत पर खराब नही होने दिया जाएगा ।

एसोसिएशन की ओर से डीजीपी पंजाब श्री दिनकर गुप्ता का मनीष शंकर, अमित कुमार, विजय जिंदल, रवी शर्मा, रोहित कुमार और जगदीश सिंह खालसा ने धन्यवाद किया। प्रेस को यह सारी जानकारी एसोसिएशन के प्रेस सेक्टरी अमरजीत रतन की तरफ से दी गई ।


Friday, October 16, 2020

महिलाओं पर विशेष वेबिनार 17 अक्टूबर को बाद दोपहर 2 बजे

 महिलाओं के खिलाफ हिंसा से सबंधित सभी पक्षों पर ख़ास चर्चा 


लुधियाना
: 16 अक्टूबर 2020: (मीडिया स्क्रीन ऑनलाइन ब्यूरो)::

देश में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर अक्सर बहुत से दावे किये जाते रहते हैं। बहुत से कानून और नियम बने भी हैं लेकिन वास्तविकताएं ज़्यादा नहीं बदली। हकीकत में किसी लड़की  या महियल के साथ रेप का विरोध करते समय भी राजनीतिक दल अपनी अपनी सियासत और फायदे देखते हैं और जहाँ कोई सियासी फायदा न होता हो या फिर वोट बैंक प्रभावित न होता हो वहां के यौन उत्पीड़न का मामला उठाया ही नहीं जाता। यौन उत्पीड़न का विरोध करते समय भी अपने अपने फायदों का हिसाब लगा लिया जाता है। हाल ही में हाथरस (यूपी) में हुई समहूकी बलात्कार की जघन्य घटना का स्वाभाविक भी था और हुआ भी लेकिन लुधियाना के सलेम टाबरी इलाके में एक आठ वर्षीय बच्ची के साथ हुआ यही अपराध किसी भी सियासी या समाजिक दल या संगठन को अपराध ही नहीं लगा। इसका औपचारिक विरोध करने का  उठाया गया। इस तरह महिलाओं के साथ बर्बरता, बेइंसाफी, ज़ुल्मो-सितम और जुर्म लगातार जारी है। "महिलाओं के खिलाफ हिंसा-समाज और सरकारों की भूमिका" विषय पर एक विशेष वेबिनार सोशल थिंकर्ज फोरम की तरफ से दिन शनिवार 17 अक्टूबर 2020 को बाद दोपहर दो बजे आयोजित किया जा रहा है जो शाम चार बजे तक चलेगा। 

इस  वेबिनार में विषय का परिचय कराने की ज़िम्मेदारी दी गई  जानीमानी लोकप्रिय लेखिका डा. गुरचरण कौर कोचर को।

इस हिंसा की वजह से मानसिकता पर पढ़ने वाले प्रभावों पर करेंगी डा. परम सैनी, 

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा से सबंधित सभी क़ानूनी पक्षों की खोजपूर्ण जानकारी देंगें भूतपूर्व अटार्नी जनरल और हमारे युग के जाने माने लेखक मित्र सेन मीत एडवोकेट, 

महिलाओं के खिलाफ हिंसा की इस समस्या के कारण क्या क्या हैं और आखिर इसका हल क्या हो? इस विषय पर बहुत ही गहराई से चर्चा करेंगी विशाल मज़दूर संगठन "एटक" (आल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस) की   राष्ट्रिय महासचिव कामरेड अमरजीत कौर। 

सभी से निवेदन है कि इस वेबिनार में समय पर शामिल होने का कष्ट करें। 

Topic: Violence against women - role of society and state

Time: Oct 17, 2020 02:00 PM India

 Join Zoom Meeting

https://us02web.zoom.us/j/88375431893?pwd=aUloL3lhZERLMUF0bUNaMU9OYjUwUT09  

 Meeting ID: 883 7543 1893

Passcode: 369516

डा. अरुण मित्रा-संयोजक,  मोबाईल सम्पर्क: 9417000360

एम एस भाटिया-सह संयोजक मोबाईल सम्पर्क: 9988491002

Tuesday, October 13, 2020

मीडिया के सूचनार्थ/आमंत्रण पत्र

 भारतीय लोकमंच पार्टी की तरफ से पत्रकार सम्मेलन 

दिनांक : मंगलवार, 13 अक्टूबर/2020

भारतीय लोकमंच पार्टी के तरफ से  कल दिनांक : 14/अक्टूबर/2020 दिन बुधवार समय 12:30 बजे दिन में बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन (दक्षिणी मंदिरी पटना आर्ट कॉलेज के पीछे) के सभागार में प्रेस को लोकमंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष साधु शरण पांडेय जी संबोधित करेंगे।

अतः श्रीमान से निवेदन है संवाददाता और छायाकार को भजेने की कृपा करें

सम्पर्क व्यक्ति:

                                कुणाल सिकंद

                              राष्ट्रीय प्रधान महासचिव

                             भारतीय लोकमंच पार्टी 

                               मो: 9430620783

Thursday, October 1, 2020

हाथरस कांड पर सामना ने भी बखिये उधेड़ दिए

 सत्ता के साथ साथ मीडिया पर भी किये कई सवाल 

 किस्सागोई… हाथरस में किसका हाथ?  

 अक्टूबर 1, 2020  संदीप सोनवलकर , मुंबई 

जिस अंदाज में यूपी पुलिस ने मंगलवार देर रात हाथरस की बलात्कार पीड़िता का बिना परिवारवालों को साथ लिए ही अंतिम संस्कार कर दिया, उससे इतना तो साफ हो गया है कि हाथरस के इस घृणित कार्य में केवल अपराधी ही नहीं अब सरकार और पुलिस भी शामिल हो गई है। पुलिस तो अब ये तक कहने लगी है कि उस लड़की के साथ रेप हुआ या नहीं? ये अभी जांच का विषय है। उत्तरप्रदेश पर सच में गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं और उतने ही सवाल ये भी कि अगर ये किसी गैर भाजपा शासित राज्य में हुआ होता तो क्या मीडिया उतना ही चुप रहता?

सवाल तो ये भी उठ रहा है कि अगर सरकार कानून व्यवस्था नहीं संभाल पा रही तो राज्यपाल आनंदी बेन पटेल क्यों चुप हैं? वो तो खुद एक महिला हैं, कम से कम रिपोर्ट तो मांग लेतीं। महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी से सीखिए वो तो अभिनेत्रियों तक से मिल लेते हैं। मनपा अफसरों को हड़का देते हैं। असल में मीडिया से लेकर सरकार तक सब इसलिए चुप हैं क्योंकि ये भाजपा शासित योगी सरकार है। अलीगढ़ के आईजी पीयूष मोर्डिया ने तो कह दिया कि अभी बलात्कार की पुष्टि तक नहीं हुई है लेकिन उनके पास इस बात का जवाब तक नहीं है कि पुलिस ने किस हैसियत से सफदरजंग अस्पताल से उस लड़की का शव लिया और बिना परिवारवालों के ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया।

पुलिस का कहना है कि हाथरस गैंगरेप पीड़िता ने उपचार के दौरान विवेचक के सामने कई बार अपने बयान बदले थे। इसका विवेचक की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है। पीड़िता के अलग-अलग तिथियों में लिए गए बयान में अलग-अलग बातें सामने आई हैं। इतना ही नहीं, मेडिकल रिपोर्ट में रेप की पुष्टि नहीं हो पाई है। उपचार के दौरान युवती के तीन बार बयान लिए गए। पुलिस अधिकारियों के मुताबिक, पहली बार में युवती ने रेप से जुड़ा कोई बयान नहीं दिया था। उसके बाद १९ सितंबर को बयान हुए, जिसमें कहा कि मेरे साथ छेड़छाड़ हुई है। बयान के आधार पर पुलिस ने धारा बदलकर आगे की कार्रवाई शुरू कर दी थी। उसके बाद २२ सितंबर को बयान दर्ज हुए, जिसमें पीड़िता ने कहा था कि उसके साथ रेप हुआ है। नए बयान के आधार पर पुलिस ने आगे की कार्रवाई शुरू कर आरोपियों को गिरफ्तार किया था। मेडिकल रिपोर्ट पर गौर करें तो उसमें युवती के साथ रेप की पुष्टि नहीं हुई है। घटना के अनुसार १४ सितंबर की सुबह गांव चंदपा की युवती अपनी मां के साथ खेत पर गई थी। वह खेत में घास काट रही थी। इसी बीच संदीप नाम का एक युवक वहां आ धमका और छेड़छाड़ करने लगा। युवती ने विरोध किया तो हमला बोल दिया। युवती के चिल्लाने पर युवती की मां आरोपी की तरफ दौड़ पड़ी। इतने में आरोपी मौका पाकर फरार हो गया था। घायल युवती को आनन-फानन में अस्पताल ले जाया गया।

युवती के भाई ने करीब १०.३० बजे थाने पहुंचकर बताया कि उसकी बहन का गला दबाकर मारने का प्रयास किया गया। मामले में एफआईआर दर्ज हुई। युवती की गंभीर हालत को देखते हुए उसको एएमयू के जेएन मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया। यहां चिकित्सकों ने देखा कि युवती की कमर की एक हड्डी टूटी है। इतना ही नहीं, दोनों पैर भी सही से काम नहीं कर रहे थे। हिंदी सामना से साभार 


Saturday, September 12, 2020

जानीमानी पत्रिकाओं की बेवक़्त मौत पर भी नहीं रोया यह समाज

सारी उम्र मीडिया की साधना करने वाले अब किस राह पर चलें?
सोशल मीडिया//इंटरनेट: 12 सितंबर 2020: (मीडिया स्क्रीन online)::  
जानीमानी पत्रिकाओं की बेवक़्त मौत हो रही है और मीडिया संस्थानों से पत्रकारों की छंटनी हो रही है। इतना कुछ होने पर भी समाज मूक दर्शक बना हुआ है। इस समाज के पास शराब पीने के लिए बहुत से पैसे हैं लेकिन बौद्धिक सम्पदा को बचाने के लिए कुछ भी नहीं। 
बुरी खबर यह है कि कोरोनावायरस (कोविड-19) के कारण मध्यवर्गीय लोगों के कारोबार ठप्प हो रहे हैं। बहुत से ढाबे, बहुत काम और बहुत से कारोबार बंद हो चुके हैं। इस मार का असर मीडिया पर भी पड़ा है।  ऐसे में जहां पाठकों पर ऑनलाइन पढ़ने का दबाव बना है वहीं एडवर्टाइजिंग रेवेन्यू में कमी भी आई है।
ऐसे में ब्रिटेन प्रसिद्ध अखबार ‘डेली मिरर’ (Daily Mirror) और ‘डेली एक्सप्रेस’ (Daily Express) की प्रकाशक कंपनी ‘रीच’ (Reach) ने 550 एम्प्लॉयीज की छंटनी करने की योजना बनाई जिसकी खबरें जुलाई में बाहर आ गयीं थीं। इतना बड़ा  ब्रांड अगर ऐसा करता है तो यह यकीकन एक दुखद सत्य है। इसके साथ ही यह सुखद तथ्य भी सामने आया है कि डिजिटल मीडिया में लोगों का उत्साह भी तेज़ी से बढ़ रहा है।
इसी सिलसिले में जानीमानी प्रकाशक कंपनी "रीच" (Reach) के चीफ एग्जिक्यूटिव जिम मुलेन (Jim Mullen) ने एक बयान में कहा कि महामारी के दौरान मीडिया क्षेत्र में संरचनात्मक परिवर्तन में तेजी आई है और इससे हमारे डिजिटल उत्पादों को बढ़ावा मिला है। साथ ही यह भी कहा कि विज्ञापन ज़्यादा न मिलने की वजह से  डिजिटल रेवेन्यू नहीं बढ़ा है। रेवन्यू न बढ़ने के कारण आर्थिक संकट की तलवार लटकने लगी है। तलवार गिरी है अब पत्रकार और गैर-पत्रकार  कामगारों पर। 
मीडिया में आई खबरों के मुताबिक इस गंभीर आर्थिक संकट को बहुत बड़ा कारण बताते हुए प्रकाशक कंपनी ने कहा कि कंपनी लगभग 550 कर्मचारियों की छंटनी करेगा, जोकि इसके कर्मचारियों की संख्या का करीब 12 प्रतिशत है। ऐसा करने से कंपनी को 35 मिलियन पाउंड यानी करीब 43 मिलियन डॉलर की सालाना बचत होगी। अब कम्पनी को तो बचत हो जाएगी लेकिन जिनको नौकरी से बाहर किया जाना है उनका क्या बनेगा। शायद ऐसे सवालों का जवाब पूंजीवादी सोच के लोगों के पास होता ही नहीं।
केवल नफा नुकसान की बात सोचने वाले लोग संवेदना से दूर होते चले जाते हैं। ऐसे में अगर कोई पत्रकार आर्थिक तंगी  चल  या वह ख़ुदकुशी कर लेता  है तो पूरी खबर सामने नहीं आती। बस छोटी सी खबर कि एक पत्रकार की मौत हो गई। पूरे का पूरा परिवार उजड़ने वाली इस दुखद घटना को भी कोरोना की वजह से हुई मौत बता दिया जाता है। 
ऐसी नाज़ूक हालत में  "रीच" (Reach) के चीफ एग्जिक्यूटिव जिम मुलेन (Jim Mullen) का ब्यान बहुत ही महत्वपूर्ण भी बन जाता है। इस नुक्सान भरी स्थिति के तकनीकी फायदे गिनवाते हुए उन्होंने कहा कि इस कदम से हमारा एडिटोरियल प्रिंट व डिजिटल की नेशनल व रीजनल टीमों को एक साथ लेकर अधिक केंद्रीयकृत रूप में आगे बढ़ेगा। हमारे न्यूज ब्रैंड्स की मज़बूत एडिटोरियल पहचान को बरकरार रखते हुए इसकी दक्षता में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी और डुप्लीकेशन खत्म होगा। ब्रिटेन में कई रीजनल न्यूजपेपर का प्रकाशन करने वाली इस कंपनी ने कहा कि पुनर्गठन से ग्रुप को करीब 20 मिलियन पाउंड का खर्च आएगा। शायद इसे ही कहा जाता है आपदा की अवसर में बदलना। 
कंपनी ने कहा कि उसके पास अब कम स्पेस होगा और मैनेजमेंट स्ट्रक्चर भी बहुत ही सिम्पल होगा। कंपनी ने इस बात की भी जानकारी दी है कि सर्कुलेशन और ऐडवर्टाइजिंग की कमी के चलते कंपनी का राजस्व 27.5 प्रतिशत घट गया है। निश्चय ही यह बहुत बड़ी गिरावट है।
लेकिन सत्य यह भी कि यह है इस नाज़ुक दौर में इतनी बढ़ी कम्पनी की कारोबारी रणनीति। साथ ही उन्होंने बहुत ही ईमानदारी से अपने फायदे भी गिनवाए हैं। राजस्व में आई कमी और पुनर्गठन पर आने वाले खर्चे की बात भी स्पष्ट हुई है लेकिन बेरोज़गार होने वालों पर क्या असर होगा इसका कोई ज़िक्र तक नहीं है। शायद पूंजवादी सिस्टम में उनका कोई अर्थ नहीं है। यही सोच अधिकतर लोगों को साम्यवाद की तरफ ले जाती है।
अब देखना है कि पूरा समाज इसके लिया क्या करता है? अफ़सोस है कि न जाने कितनी कितनी शराब पी जाने वाले समाज ने मीडिया के कम हो रहे राजस्व को पूरा करने की कोई औपचारिक पेशकश तक भी नहीं की। इस पूरे समाज ने बेरोज़गार हुए पत्रकार और गैरपत्रकार मीडिया कर्मियों के घरों की चिंता भी नहीं की।  ज़ाहिर है कि अपने आप को पढ़ा लिखा और सांस्कृतिक समाज कहलाने वाला यह पूरा सिस्टम मीडिया, लेखन, कविता, कला या बौद्धिक सम्पदा से भरे लोगों के रहने लायक है ही नहीं। यह समाज अभी भी बेहद पिछड़ा हुआ और स्वार्थी है। शायद यहाँ वह सुबह कभी नहीं आएगी जिसके सपने हमें साहिर लुधियानवी साहिब ने दिखाए।
अफ़सोस कि इस समाज को नंदन और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं बंद होने पर कोई मलाल नहीं हुआ। यह समाज की जीवन धारा से कम तो न थीं। गौरतलब है कि एचटी मीडिया द्वारा जहां एक ओर संस्करणों से पत्रकारों की विदाई की जा रही है, वहीं कंपनी ने प्रसिद्ध और लोकप्रिय नंदन और कादम्बिनी पत्रिका का प्रकाशन भी पूरी तरह से बंद करने का फैसला सुना दिया है। उल्लेखनीय है कि साहित्यिक पत्रिका कादम्बिनी 1960 से प्रकाशित हो रही थी वहीं बाल पत्रिका नंदन 1964 से।  दोनों पत्रिकाएं बहुत बड़े पैमाने पर पढ़ीं जाती थीं। इनकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत ऊंचा था। अंग्रेजी की रीडर डाइजेस्ट की तरह हिंदी पत्रिका को भी हाथ में लेकर चलने से साख बढ़ती है इस बात को फैशन बनाने में इन पत्रिकाओं का भी बहुत बड़ा योगदान रहा। अफ़सोस कि हमारा खोखला समाज इनकी बेवक़्त मौत पर मूकदर्शक ही बना रहा। बोले भी तो बस वही थोड़े से लोग जो किसी न किसी तरह इन पत्रिकाओं से जज़्बाती तौर पर जुड़े हुए थे। समाज की यह चुप्पी इस समाज में बढ़ती जा रही गिरावट का इशारा भी है। न जाने अभी और क्या क्या देखना बाकी है। --मीडिया लिंक रविंद्र 

Friday, September 11, 2020

दूरदर्शन के 58 साल//ऐसा अतीत जिसे भूलना आसान नहीं

 विशेष सेवा और सुविधाएँ 15-September, 2017 19:07 IST
 दूरदर्शन का आज भी कोई सानी नहीं है 
 विशेष लेख                                                                                  *प्रदीप सरदाना 
टेलीविजन का आविष्कार यूँ तो जॉन एल बिलियर्ड ने 1920 के दौर में ही कर दिया था।  लेकिन भारत में यह टीवी तब पहुंचा जब 15 सितम्बर 1959 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने दिल्ली में एक प्रसारण सेवा दूरदर्शन का उद्घाटन किया। हालांकि तब शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह दूरदर्शन, यह टीवी आगे चलकर जन जन की जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाएगा। आज यह टीवी रोटी कपड़ा और मकान के बाद लोगों की चौथी ऐसी जरुरत बन गया है कि जिसके बिना जिंदगी मुश्किल और सूनी सी लगती है।
लेखक प्रदीप सरदाना 
अब वही दूरदर्शन अपने जीवन के 58 बरस पूरे कर चुका है। इतने बरसों में दूरदर्शन का,टीवी का अपने देश में इतना विकास हुआ है कि इसे देखना जीवन की एक आदत ही नहीं जरुरत बन गया है। हालांकि शुरूआती बरसों में दूरदर्शन का विकास बहुत धीमा था. शुरूआती बरसों में इस पर आधे घंटे का नाम मात्र प्रसारण होता था। पहले इसे स्कूली शिक्षा के लिए स्कूल टेलीविजन के रूप में शुरू किया गया।  लेकिन इसका 500 वाट का ट्रांसमीटर दिल्ली के मात्र 25 किमी क्षेत्र में ही प्रसारण करने में सक्षम था।  तब सरकार ने दिल्ली के निम्न और माध्यम वर्गीय क्षेत्र के 21 सामुदायिक केन्द्रों पर टीवी सेट रखवाकर इसके प्रसारण की विशेष व्यवस्था करवाई थी। ऐसे में तब दूरदर्शन से कोई बड़ी उम्मीद भला कैसे रखी जा सकती थी। हालाँकि जब 15 अगस्त 1965 को दूरदर्शन पर समाचारों का एक घंटे का नियमित हिंदी बुलेटिन आरम्भ हुआ तब दूरदर्शन में लोगों की कुछ दिलचस्पी बढती दिखाई दी। इसके बाद दूरदर्शन पर 26 जनवरी 1967 को किसानों को खेती बाड़ी आदि की ख़ास जानकारी देने के लिए दूरदर्शन पर ‘कृषि दर्शन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया गया। इसी दौरान दूरदर्शन पर नाटकों का प्रसारण भी शुरू किया गया। लेकिन दूरदर्शन की लोकप्रियता में बढ़ोतरी तब हुई जब इसमें शिक्षा और सूचना के बाद मनोरंजन भी जुड़ा।
असल में जब 2 अक्टूबर 1972 को दिल्ली के बाद मुंबई केंद्र शुरू हुआ तो मायानगरी के कारण इसका फिल्मों से जुड़ना स्वाभाविक था। मनोरंजन के नाम पर दूरदर्शन पर 70 के दशक की शुरुआत में ही एक एक करके तीन शुरुआत हुईं। एक हर बुधवार आधे घंटे का फ़िल्मी गीतों का कार्यक्रम चित्रहार शुरू किया गया। दूसरा हर रविवार शाम एक हिंदी फीचर फिल्म का प्रसारण शुरू हुआ। साथ ही एक कार्यक्रम ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’ भी शुरू किया गया। इस कार्यक्रम में फिल्म अभिनेत्री तब्बसुम फिल्म कलाकारों के इंटरव्यू लेकर उनकी जिंदगी की फ़िल्मी बातों के साथ व्यक्तिगत बातें भी दर्शकों के सामने लाती थीं। तब देश में फिल्मों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ चुकी थी। लेकिन सभी के लिए सिनेमा घर जाकर सिनेमा देखना संभव नहीं था,ऐसे में जब यह सब दूरदर्शन पर आया तो दर्शकों की मुराद घर बैठे पूरी होने लगी। यूँ यह वह दौर था जब 1970 में देश भर में मात्र 24838 टीवी सेट थे। जिनमें सामुदायिक केन्द्रों में सरकारी टीवी सेट के साथ कुछ अधिक संपन्न व्यक्तियों के घरों में ही टीवी होता था। ऐसे में तब अधिकांश मध्यम वर्ग के लोग भी अपने किसी संपन्न पडोसी या रिश्तेदार के यहाँ जाकर बुधवार का चित्रहार और रविवार की फिल्म देखने का प्रयास करते थे।
                          सीरियल युग से आई टीवी में क्रांति 
समाचार, चित्रहार और फिल्मों के बाद दूरदर्शन में दर्शकों की दिलचस्पी तब बढ़ी जब दूरदर्शन पर सीरियल युग का आरम्भ हुआ। यूँ तो दूरदर्शन पर कभी कभार सीरियल पहले से ही आ रहे थे।  लेकिन सीरियल के इस नए मनोरंजन ने क्रांति का रूप तब लिया जब 7 जुलाई 1984 को ‘हम लोग’ का प्रसारण शुरू हुआ।  निर्मात्री शोभा डॉक्टर, निर्देशक पी कुमार वासुदेव और लेखक मनोहर श्याम जोशी के ‘हम लोग’ ने दर्शको पर अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि हमारे सामाजिक परिवेश, दिनचर्या और आदतों तक में यह बड़ा परिवर्तन साबित हुआ, जिससे हम सब की दुनिया ही बदल गयी। ‘हम लोग’ के कुल 156 एपिसोड प्रसारित हुए लेकिन इसका आलम यह था कि जब इसका प्रसारण होता था तब कोई मेहमान भी किसी के घर आ जाता था था तो घर वाले उसकी परवाह न कर अपने इस सीरियल में ही मस्त रहते थे। लोग शादी समारोह में जाने में देर कर देते थे लेकिन ‘हम लोग’ देखना नहीं छोड़ते थे।   ‘हम लोग’ और दूरदर्शन की लोकप्रियता का प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि सन 1970 में देश में जहाँ टीवी सेट की संख्या 24838 थी ‘हम लोग’ के बाद 1984 में वह संख्या 36,32,328 हो गयी।
‘हम लोग’ का दर्शकों पर जादू देख दूरदर्शन ने 1985 में ही हर रोज शाम का दो घंटे का समय विभिन्न सीरियल के नाम कर दिया। जिसमें आधे आधे घंटे के 4 साप्ताहिक सीरियल आते थे। सभी सीरियल को 13 हफ्ते यानी तीन महीने का समय दिया जाता था। उसके बाद वह जगह किसी नए सीरियल को दे डी जाती थी। सिर्फ किसी उस सीरियल को कभी कभार 13 और हफ़्तों का विस्तार दे दिया जाता था, जो काफी लोकप्रिय होता था या फिर जिसकी कहानियां कुछ लम्बी होती थीं। इस दौरान दूरदर्शन पर बहुत से ऐसे सीरियल आये जिन्होंने दर्शकों पर अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी। लेकिन दूरदर्शन की इस लोकप्रियता को तब और भी पंख लग गए जब दूरदर्शन ने 1987 में ‘रामायण’ महाकाव्य पर सीरियल शुरू किया। फिल्म निर्माता रामानंद सागर द्वारा निर्मित निर्देशित ‘रामायण’ सीरियल ने टीवी की लोकप्रयता को एक दम एक नया शिखर प्रदान कर दिया। जब रविवार सुबह ‘रामायण’ का प्रसारण होता था तो सभी सुबह सवेरे  उठकर, नहा धोकर टीवी के सामने ‘रामायण’ देखने के लिए ऐसे बैठते थे जैसे मानो वे मंदिर में बैठे हों। ‘रामायण’ के उस प्रसारण के समय सभी घरों में टीवी के सामने होते थे तो घरों के बाहर सुनसान और कर्फ्यू जैसे नज़ारे दिखते थे। बाद में ‘रामायण’ की लोकप्रियता से प्रभावित होकर दूरदर्शन ने अगले बरस एक और महाकाव्य ‘महाभारत’ का प्रसारण शुरू कर दिया। फिल्मकार बीआर चोपड़ा द्वारा बनाए गए इस सीरियल ने भी जबरदस्त लोकप्रियता पायी।
दूरदर्शन के पुराने लोकप्रिय सीरियल को याद करें तो हम लोग, रामायण और महाभारत के अतिरिक्त ऐसे बहुत से सीरियल रहे जिन्होंने सफलता,लोकप्रियता का नया इतिहास लिखा। जैसे यह जो है जिंदगी, कथा सागर, बुनियाद, वागले की दुनिया,खानदान, मालगुडी डेज़, करमचंद, एक कहानी,श्रीकांत, नुक्कड़, कक्का जी कहिन, भारत एक खोज, तमस, मिर्ज़ा ग़ालिब,निर्मला, कर्मभूमि, कहाँ गए वो लोग, द सोर्ड ऑफ़ टीपू सुलतान, उड़ान, रजनी, चुनौती, शांति, लाइफ लाइन ,नींव, बहादुर शाह ज़फर, जूनून, स्वाभिमान, गुल गुलशन गुलफाम, नुपूर, झरोखा, जबान संभाल के, देख भाई देख,तलाश और झांसी की रानी आदि।
                        एक ही चैनल ने बरसों तक बांधे रखा
यह निश्चय ही सुखद और दिलचस्प है कि आज चाहे देश में कुल मिलाकर 800 से अधिक उपग्रह-निजी चैनल्स का प्रसारण हो रहा है। जिसमें मनोरंजन के साथ समाचार चैनल्स भी हैं तो संगीत, सिनेमा, खेल स्वास्थ्य, खान पान, फैशन, धार्मिक, आध्यात्मिक और बच्चों के चैनलस भी हैं तो विभिन्न भाषाओँ और प्रदेशों के भी। लेकिन एक समय था जब अकेले दूरदर्शन ने यह सारा ज़िम्मा उठाया हुआ था। दूरदर्शन का एक ही चैनल समाचारों से लेकर मनोरंजन और शिक्षा तक की सभी कुछ दिखाता था। जिसमें किसानों के लिए भी था बच्चों और छात्रों के लिए भी, नाटक और फ़िल्में भी थीं तो स्वास्थ्य और खान पान की जानकारी के साथ कवि सामेलन भी दिखाये जाते थे और नाटक भी। मौसम का हाल होता था और संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम भी। क्रिकेट, फुटबाल सहित विभिन्न मैच का प्रसारण भी होता था तो स्वंत्रता और गणतंत्र दिवस का सीधा प्रसारण भी। धरती ही नहीं अन्तरिक्ष तक से भी सीधा प्रसारण दिखाया जाता था जब प्रधानमन्त्री के यह पूछने पर कि ऊपर से भारत कैसा दिखता है, तब भारतीय अन्तरिक्ष यात्री राकेश शर्मा के ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दुस्तान हमारा, कहने पर पूरा देश गर्व से रोमांचित हो गया था। बड़ी बात यह है कि दूरदर्शन के इस अकेले चैनल ने सही मायने में सन 1990 के बाद के कुछ बरसों तक भी अपना एक छत्र राज बनाए रखा। यूँ कहने को दूरदर्शन का एक दूसरा चैनल 17 सितम्बर 1984 को शुरू हो गया था। लेकिन सीमित अवधि और सीमित कार्यक्रमों वाला यह चैनल दर्शकों पर अपना प्रभाव नहीं जमा पाया जिसे देखते हुए इसे कुछ समय बाद बंद कर देना पड़ा। बाद में 2 अक्टूबर 1992 में जहाँ जी टीवी से उपग्रह निजी हिंदी मनोरंजन चैनल की देश में पहली बड़ी शुरुआत हुई वहां 1993 में दूरदर्शन ने मेट्रो चैनल की भी शुरुआत की। तब निजी चैनल्स के साथ मेट्रो चैनल को भी बड़ी सफलता मिली और दर्शकों को नए किस्म के नए रंग के सीरियल आदि काफी पसंद आये। लेकिन उसके बाद देश में सभी किस्म के चैनल्स की बाढ़ सी आती चली गयी। इससे दूरदर्शन को कई किस्म की चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। पहली चुनौती तो यही रही कि एक पब्लिक ब्रॉडकास्टर होने के नाते दूरदर्शन के सामजिक जिम्मेदारियां हैं। दूरदर्शन मनोरंजन के नाम पर निजी चैनल्स की तरह दर्शकों को कुछ भी नहीं परोस सकता।
दूरदर्शन की महानिदेशक सुप्रिया साहू भी कहती हैं- यह ठीक है कि दूरदर्शन एक पब्लिक ब्रोडकास्टर है लेकिन मैं समझती हूँ कि यह सब  होते हुए भी दूरदर्शन अपनी भूमिका अच्छे से निर्वाह कर रहा है। दूरदर्शन का आज भी दर्शकों में अपना अलग प्रभाव है, दूरदर्शन अपने दर्शकों को साफ सुथरा और उद्देश्य पूर्ण मनोरंजन तो प्रदान कर ही रहा है लेकिन दर्शकों को जागरूक करने की भूमिका में दूरदर्शन सभी से आगे है। बड़ी बात यह है देश में कुछ निजी चैनल्स मनोरंजन और समाचारों के नाम पर जो सनसनीखेज वातावरण तैयार करते हैं दूरदर्शन हमेशा इससे दूर रहकर स्वस्थ और सही प्रसारण को महत्व देता है। हाँ  दूरदर्शन के सामने जो चुनौतियाँ हैं उनसे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दूरदर्शन के इस 58 वें स्थापना दिवस पर मैं सभी को यह विश्वास दिलाती हूँ कि आज दूरदर्शन अपनी सभी किस्म की चुनौतियों से निबटने के लिए स्वयं सक्षम है। आज हमारे पास विश्व स्तरीय तकनीक है हम दुनियाभर में जाकर अपने एक से एक कार्यक्रम बनाते हैं और दिखाते हैं.निजी चैनल जिन मुद्दों पर उदासीन रहते हैं वहां हम उस सब पर बहुत कुछ दिखाते हैं, जैसे किसानों पर, स्वच्छता पर, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ पर। कला पर संस्कृति पर। आज दूरदर्शन के देश में कुल 23 चैनल्स हैं जिनमें 16 सेटेलाइट्स चैनल हैं और 7 नेशनल चैनल्स। जिससे दूरदर्शन आज महानगरों से लेकर छोटे नगरों,कस्बों और गाँवों तक पूरी तरह जुड़ा हुआ है। हमारे कार्यक्रम तकनीक और कंटेंट दोनों में उत्तम हैं। इस सबके बाद भी यदि कहीं कोई कमी मिलती है तो हम उसे दूर करेंगे। समय के साथ अपने कार्यक्रमों की निर्माण गुणवत्ता में जो आधुनिकीकरण करना पड़ेगा, उसे भी हम करेंगे। कुल मिलाकर उद्देश्य यह है कि हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से भी पीछे नहीं हटेंगे और दर्शको का दूरदर्शन में भरोसा भी कायम रखेंगे।”
दूरदर्शन में दर्शकों का भरोसा कायम रहे इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। मेरा तो दूरदर्शन से अपना भी व्यक्तिगत लगाव है। पहला तो इसलिए ही कि मैं भी देश के लाखों करोड़ों लोगों की तरह  बचपन से दूरदर्शन को देखते हुए बड़ा हुआ हूँ। लेकिन इसके साथ दूरदर्शन से मेरा विशेष और अलग लगाव इसलिए भी है कि मैंने ही देश में सबसे पहले दूरदर्शन पर नियमित पत्रकारिता शुरू की। सन 1980 के दशक के शुरुआत में ही मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि दूरदर्शन जल्द ही घर का एक सदस्य बन जाएगा। जब दूरदर्शन पर ‘हम लोग’ से भी पहले ‘दादी माँ जागी’ नाम से देश का पहला नेटवर्क सीरियल शुरू हुआ तो मैंने उसकी चर्चा देश के विभिन्न हिस्सों में दूर दराज तक होते देखी। मुझे लगा कि एक सीरियल एक ही समय में पूरे देश में यदि देखा जाएगा तो यह टीवी मीडिया क्रांति ला देगा। तब हम कोई फिल्म देखते थे तो वह अलग अलग समय में अलग अलग दिनों में देखते थे मगर रात 8 या 9 बजे राष्ट्रीय प्रसारण वाला सीरियल एक साथ एक ही समय में पूरा देश देख लेता था। उसके बाद उसमें दिखाए दृश्य अगले दिन सभी की चर्चा का विषय बने होते थे। यह ठीक है कि अब अलग अलग सैंकड़ों चैनल्स आने से स्थितियों में बदलाव हुआ है लेकिन दूरदर्शन ने देश को एक साथ जोड़ने, लोगों को जागरूक करने, शिक्षित करने और उन्हें मनोरंजन प्रदान करने का जो कार्य किया है उसका आज भी कोई सानी नहीं है।
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*लेखक पिछले लगभग 40  वर्षों से राजनीति, संचार,  स्वास्थ्य, परिवहन, पर्यटन, जल, शिक्षा आदि के साथ सिनेमा और टीवी जैसे विषयों पर भी देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित समाचार पत्र पत्रिकाओं में नियमित लिख रहे हैं। लेखक टीवी पर नियमित लिखने वाले देश के पहले पत्रकार भी है। 
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Friday, June 26, 2020

ऑनलाइन मीडिया वालों को भी सभी सुविधाएं मिलें-नरेंदर भंडारी

 नए सिरे से 'मीडिया' व 'पत्रकार' की परिभाषा तय हो 
नई दिल्ली//सोशल मीडिया: 26 जून 2020: (कार्तिका सिंह//मीडिया स्क्रीन ऑनलाइन)::
महासचिव नरेंद्र भंडारी 
देश के ज्यादातर मीडियाकर्मियों का मानना है कि केंद्र सरकार को जल्द से जल्द मीडिया आयोग का गठन करना चाहिये। माड़ियाकर्मियों का ये भी मानना है कि देश के सभी मीडिया संगठनों को पत्रकारो की मांगों को मनवाने के लिये एक्जुट होना चाहिये। देश के पत्रकारो के शीर्ष संगठन वर्किंग जर्नलिस्ट्स ऑफ इंडिया, सम्बद्ध भारतीय मजदूर संघ की तरफ से देश के मीडियाकर्मियों के बीच मीडिया रिफॉर्म्स को लेकर एक सर्वे अभियान चलाया गया है। इस सर्वे अभियान में अलग अलग राज्यो के पत्रकारो ने अपनी राय जतायी है।             वालों            
यूनियन के राष्ट्रीय अध्य्क्ष श्री अनूप चौधरी के अनुसार मीडिया रिफॉर्म्स सर्वे में ज्यादातर पत्रकारो का मानना है कि देश मे व्यापक स्तर पर मीडिया सुधारो की आवश्यकता है। ज्यादातर पत्रकारो का मानना है कि केंद्र सरकार को मीडिया आयोग बनाने की आवश्यकता है। श्री चौधरी के अनुसार देश मे पहले 2 प्रेस कमीशन बने थे। पर जिस तरह से मीडिया का विस्तार हुआ है, उसे देखते हुए अब मीडिया आयोग बनाने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि मीडिया आयोग को नए सिरे से "मीडिया" व " पत्रकार" की परिभाषा तय करनी होगी।                 
यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव नरेंद्र भंडारी के अनुसार मीडिया रिफॉर्म्स सर्वे फॉर्म में ज्यादातर पत्रकारो की राय है कि सरकार को ऑनलाइन मीडिया को मान्यता देनी चाहिये। श्री भंडारी के मुताबिक लॉकडाउन के बाद ये सामने आया है कि मीडिया जगत में ऑनलाइन मीडिया एक बड़ी ताकत बनकर उभरकर सामने आया है। देश मे बड़े माड़िया घरानों का भी झुकाव ऑनलाइन मीडिया की तरफ हुआ है। श्री भंडारी के अनुसार ऑनलाइन मीडिया के पत्रकारो को भी वे सभी सुविधाएं दी जानी चाहिये जो प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारो को दी जाती है।                               
इस अभियान के संयोजक व यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री संजय उपाध्याय के अनुसार सर्वे में ज्यादातर पत्रकारो का मानना है कि पत्रकारो की मांगों को लेकर सभी मीडिया संस्थ्यओ को एकजुट होना चाहिये। श्री उपाध्याय के मुताबिक इस सर्वे में मीडियाकर्मियों की तरफ से जतायी गयी राय के अनुसार वर्किंग जर्नलिस्ट्स ऑफ इंडिया अपने आगे के आंदोलन की रणनीति तय करेगी।

Tuesday, June 23, 2020

पत्रकार सुप्रिया शर्मा के खिलाफ FIR प्रेस को खामोश करने की कोशिश

वरिष्ठ पत्रकार सुप्रिया शर्मा के मुद्दे को NWMI ने ज़ोरदार ढंग से उठाया 
नई दिल्ली: 20 जून 2020: (समकालीन जनमत)::
नेटवर्क ऑफ वुमेन इन मीडिया, इंडिया (एनडब्ल्यूएमआई) ने प्रधानमंत्री द्वारा 2018 में गोद लिये गये वाराणसी के पास के डुमरी गाँव के निवासियों की आजीविका छिन जाने और उनके भूख के बारे में स्क्रोल डॉट इन की कार्यकारी सम्पादक सुप्रिया शर्मा की रिपोर्ट को निशाना बनाते हुये उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा दर्ज की गयी एफआईआर की निन्दा की है और इसे प्रेस को खामोश करने का प्रयास बताया है। एनडब्ल्यूएमआई ने एफ.आई.आर. को वापस लेने और सुप्रिया शर्मा को गिरफ्तारी से बचाने की मांग की है। 
शुक्रवार को जारी एक बयान में एनडब्ल्यूएमआई ने कहा कि नोवल कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिये लागू कठोर लाॅक डाउन ने भारत के ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में ठेका और दैनिक वेतनभोगी मजदूरों को घोर तंगी और अनिश्चितता में झोंक दिया है। ऐसे समय में सार्वजनिक बहसों और नीतिनिर्धारण के लिये ग्रामीण क्षेत्रों और संवेदनशील समुदायों की सूचनायें बहुत महत्वपूर्ण हो गयी हैं। फिर भी पूरे भारत में और खासतौर पर उत्तर प्रदेश में सरकार और पुलिस विभाग ने यह जरूरी कर्तव्य निभानेवाले पत्रकारों को निशाना बनाते हुये मार्च में जारी लाॅक डाउन की तिथि से अब तक कम से कम 55 शिकायतें दर्ज की हैं।
उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा एक सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार सुप्रिया शर्मा को निशाना बनाते हुये एफ0आई0आर0 दर्ज किया जाना इसी कड़ी का ताज़ा उदाहरण है।
वाराणसी के हाशिये के दलित समुदायों और अनौपचारिक श्रमिकों पर लाॅक डाउन के प्रभावों के गहन शोधों के आधार पर सुप्रिया शर्मा ने आठ विस्तृत रिपोर्टें जारी की हैं। डुमरी के निवासियों, पंचायत के कर्मचारियों और जिले के अधिकारियों से साक्षात्कार पर आधारित उनकी रिपोर्ट में गाँव के लोगों की भयंकर भूख का वर्णन है और यह भी कहा गया है कि कैसे सरकार के वायदों के बावजूद उन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ी है- उनकी जीविका छिन गयी और उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली से राशन भी नहीं मिल सका. जातीय पूर्वाग्रहों के चलते हालात और भी बिगड़ गये.
13 जून की एफ.आई.आर. में उन्हीं माला देवी को शिकायतकर्ता बनाया गया है जिनका साक्षात्कार सुश्री शर्मा ने किया था, और कहा गया है कि माला देवी ने लाॅक डाउन के दौरान भूखे रहने की शिकायत नहीं की थी।  एफ.आई.आर. में माला देवी का आरोप है कि अपनी स्टोरी में सुप्रिया शर्मा ने अपना कर्तव्य और अपने लाॅक डाउन के अनुभव का ठीक ढंग से प्रतिनिधित्व नहीं किया है। एफ.आई.आर. में शिकायतकर्ता ने कहा है कि वह किसी नागरिक संगठन के लिये काम कर रही थी। सुश्री शर्मा के रिपोर्ट में उन्होंने कहा था कि उनका बेटा किसी नागरिक संगठन के लिये काम कर रहा था और वह एक घरेलू सहायिका थी।
पुलिस ने सुप्रिया शर्मा सुश्री के ऊपर पत्रकार बिरादरी को आतंकित करने के उद्देश्य से भा.द.वि. की धारा 501 (मानहानि) के अलावा अनुसूचित जाति एवं जनजाति (नृशंसता निवारण) कानून, 1989 के अन्तर्गत भी मुकदमा कायम किया है। 
हाँलाकि, एफ.आई.आर. में उल्लिखित अनुसूचित जाति एवं जनजाति (नृशंसता निवारण) कानून की दो धाराओं का सुश्री शर्मा की रिपोर्ट से कोई सम्बन्ध नहीं है, और न ही उनमें ऐसा कुछ दिखायी देता है जिसका जिक्र माला देवी ने अपनी शिकायत में किया है। पुलिस ने एफ.आई.आर. में बिना किसी आधार के भा.द.वि. की धारा 269- लापरवाही की धारा, जिससे संक्रमण फैलता है, भी लगाया है।
सुश्री शर्मा की रिपोर्ट से इन धाराओं का कुछ भी लेना-देना नहीं है. आदिवासियों और दलित कार्यकर्ताओं के वर्षों के सतत संघर्ष से ही अनुसूचित जाति एवं जनजाति (नृशंसता निवारण) कानून में 2015 और 2018 के संशोधन अस्तित्व में आये हैं। एक ओर तो पुलिस अनवरत रूप से दलितों और आदिवासियों के विरुद्ध किये गये गम्भीर अपराधों पर एफ.आई.आर. दर्ज करने से मना करके उनका दमन और उनके प्रति शत्रुवत व्यवहार कर रही है और दूसरी ओर उनकी संवेदनशीलता की रिपोर्टिंग करने पर पत्रकारों के विरुद्ध उसी कानून का प्रयोग कर रही है, यह पत्रकारों के प्रति पुलिसिया अत्याचार और उनके दमन की ख़तरनाक़ नयी प्रवृत्ति है।
ऐसे मामले एक पत्रकार और स्क्रोल.इन जैसे छोटे मीडिया संगठनों के वित्तीय संसाधनों की बर्बादी का सबब बनते हैं। फिर भी स्क्रोल.इन अपनी साहसी रिपोर्टिंग पर ऐसे खुल्लमखुल्ला हमले की कोशिशों से बिना डरे अपनी रिपोर्ट के मन्तव्य पर अटल है।
नेटवर्क ऑफ वुमेन इन मीडिया इंडिया, सुप्रिया शर्मा और स्क्रोल डॉट इन के पक्ष में मजबूती के साथ खड़ा है और प्रेस को ख़ामोश करने और उसे समाज के सर्वाधिक वंचित तबके के हालात पर रिपोर्टिंग करने के कर्तव्य से रोके जाने के ऐसे प्रयासों की पुरजोर मजम्मत करता है. हम माँग करते हैं कि यह एफ0आई0आर0 वापस ली जाय और शर्मा को गिरफ्तारी से बचाया जाय.  ---by समकालीन जनमत June 20, 2020


वरिष्ठ पत्रकार सुप्रिया शर्मा की  रिपोर्ट  को आप यहाँ पढ़ सकते हैं:










( नेटवर्क ऑफ वुमेन इन मीडिया के बयान का हिन्दी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने किया है)

Saturday, June 13, 2020

वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिता ‘मेरा जीवन, मेरा योग’

13th June 2020 10:14AM  PIB Delhi
 प्रविष्टियां जमा करने की अंतिम तिथि 21 जून, 2020 तक बढ़ाई  
नई दिल्ली: 13 जून 2020: (पीआईबी)::
प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी द्वारा हाल ही में घोषित वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिता ‘मेरा जीवन, मेरा योग’ के लिए प्रविष्टियां जमा करने की अंतिम तिथि 21 जून, 2020 तक बढ़ा दी गई है। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर यह वैश्विक प्रतियोगिता आयुष मंत्रालय और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) द्वारा छठे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर संयुक्त रूप से आयोजित की जा रही है।

इससे पहले इस प्रतियोगिता के लिए प्रविष्टियां जमा करने की अंतिम तिथि 15 जून 2020 तय की गई थी। यह तिथि बढ़ाने के लिए देश-विदेश से मांग की जा रही थी, ताकि योग बिरादरी को वीडियो तैयार करने के लिए अधिक समय मिल सके। भारी मांग को ध्‍यान में रखते हुए ही मंत्रालय और आईसीसीआर ने प्रविष्टियां जमा करने की अंतिम तिथि को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस यानी 21 जून तक बढ़ाने का निर्णय लिया है।

प्रधानमंत्री ने 31 मई को अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम के दौरान राष्ट्र को संबोधित करते हुए सभी से वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिता ‘मेरा जीवन, मेरा योग’ में भाग लेने का आह्वान किया था। यह प्रतियोगिता लोगों के जीवन पर योग के उल्‍लेखनीय परिवर्तनकारी प्रभावों पर फोकस करती है और यह छठा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाए जाने से जुड़ी विभिन्‍न उत्‍कृष्‍ट गतिविधियों में से एक अहम गतिविधि के रूप में उभर कर सामने आई है।

इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए प्रतिभागियों को 3 योगाभ्यासों (क्रिया, आसन, प्राणायाम, बंध या मुद्रा) का 3 मिनट की अवधि वाला वीडियो अपलोड करना होगा, जिसमें इस आशय का एक लघु वीडियो संदेश भी शामिल करना होगा कि योगाभ्यासों से किस तरह उनके जीवन में उल्‍लेखनीय सकारात्‍मक परिवर्तन हुए हैं। वीडियो को प्रतियोगिता के हैशटैग #MyLifeMyYogaINDIA और उपयुक्त श्रेणी के हैशटैग के साथ फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम या माईगव प्लेटफॉर्म पर अपलोड किया जा सकता है। इसमें भागीदारी के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश आयुष मंत्रालय के योग पोर्टल (https://yoga.ayush.gov.in/yoga/) पर उपलब्‍ध हैं।

यह प्रतियोगिता दो चरणों में होगी। प्रथम चरण में देश-वार वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिताएं शामिल हैं, जिनके विजेताओं का चयन देश के स्तर पर किया जाएगा। इसके बाद वैश्विक पुरस्कार विजेताओं का चयन किया जाएगा जिन्हें विभिन्न देशों के विजेताओं में से चुना जाएगा। यह प्रतियोगिता लोगों के जीवन पर योग के उल्‍लेखनीय परिवर्तनकारी प्रभावों का पता लगाने का एक अहम प्रयास है, जिसके बारे में प्रत्येक प्रतिभागी स्‍वयं के द्वारा प्रस्‍तुत किए जाने वाले वीडियो में बताएंगे।

इस प्रतियोगिता के लिए प्रतिभागियों द्वारा प्रविष्टियों को तीन श्रेणियों के तहत प्रस्तुत किया जा सकता है जिनमें युवा (18 वर्ष से कम आयु), वयस्क (18 वर्ष से अधिक उम्र) और योग प्रोफेशनल शामिल हैं और इसके साथ ही ये श्रेणियां पुरुष एवं महिला प्रतिभागियों के लिए अलग-अलग होंगी। भारत के प्रतिभागियों के मामले में प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कार पाने वालों को प्रथम चरण में प्रत्येक श्रेणी के लिए 1 लाख रुपये, 50,000 रुपये और 25,000 रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा, जबकि वैश्विक पुरस्कार प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कार पाने वालों के लिए 2500 डॉलर, 1500 डॉलर और 1000 डॉलर के होंगे।  

आयुष मंत्रालय ने सभी को बढ़ी हुई अवधि का उपयोग करने और बिना अधिक विलंब किए वीडियो प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया है। (PIB)
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Thursday, June 11, 2020

अमेरिका में विरोध-प्रदर्शनों के दौरान पत्रकारों पर बल प्रयोग की निन्दा


 मीडियाकर्मियों को अपना काम करने की पूरी आज़ादी हो 
10 जून 2020:मानवाधिकार
संयुक्त राष्ट्र और अमेरिकी राष्ट्रों के संगठन (OAS) द्वारा नियुक्त स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने नस्लभेद विरोधी आन्दोलनों की कवरेज कर रहे पत्रकारों के ख़िलाफ़ बल प्रयोग की निन्दा की है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा है कि लोकतान्त्रिक समाज में प्रैस की अहम भूमिका है और विरोध प्रदर्शनों के दौरान मीडिया को आज़ादी से काम करने की व्यवस्था का सुनिश्चित किया जाना चाहिए।  
पहरेदार की भूमिका
यूएन और अन्तर-अमेरिकी आयोग के विशेषज्ञों ने कहा कि लोकतान्त्रिक समाजों में प्रैस की एक बेहद आवश्यक पहरेदार (वॉचडॉग) के रूप में अहम भूमिका है। 

उनके मुताबिक अमेरिका में संघीय, प्रान्तीय और स्थानीय प्रशासन को यह सुनिश्चित करना होगा कि मीडियाकर्मियों को अपना काम करने की पूरी आज़ादी हो और उन्हें पूर्ण सुरक्षा उपलब्ध कराई जाए।  

क़ानून एजेंसियों का यह दायित्व है कि पत्रकारों के ख़िलाफ़ ताक़त के इस्तेमाल या फिर ऐसी धमकियाँ दिए जाने से परहेज़ किया जाए और किसी अन्य पक्ष द्वारा की जा रही हिन्सा के दौरान पत्रकारों की रक्षा की जाए। 

“पत्रकारीय ज़िम्मेदारी को निभाने में जुटे मीडियकर्मियों को निशाना बनाए जाने पर अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों के अन्तर्गत पाबन्दी है और यह पुलिस के लिए निर्धारित सर्वश्रेष्ठ मानकों के भी विपरीत है।”

बयान में आगाह किया गया है कि अगर इन नियमों की अवहेलना होती है तो फिर जवाबदेही तय करने के लिए अनुशासनात्मक प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए। 

विशेषज्ञों ने अफ़सोस ज़ाहिर किया कि अमेरिकी राष्ट्रपति पिछले कई सालों से अपने बयानों में मीडिया को जनता का दुश्मन बताकर हमला करते रहे हैं जिससे टकराव और असहिष्णुता को बढ़ावा मिलता है। 

साथ ही अमेरिका में पुलिस का सैन्यीकरण हो रहा है जिससे ना सिर्फ़ जनता के शान्तिपूर्ण ढँग से एकत्र होने का अधिकार प्रभावित होता है बल्कि विरोध-प्रदर्शनों की कवरेज करने की मीडिया की आज़ादी पर भी असर होता है।  

इसी को ध्यान में रखकर विशेषज्ञों ने असैन्यीकरण को प्रोत्साहन देने और प्रदर्शनों से निपटने के लिए अन्तरराष्ट्रीय मानकों का पालन करने की बात कही है। 

स्पेशल रैपोर्टेयर और वर्किंग ग्रुप संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा हैं. ये विशेष प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार व्यवस्था में सबसे बड़ी स्वतंत्र संस्था है। ये दरअसल परिषद की स्वतंत्र जाँच निगरानी प्रणाली है जो किसी ख़ास देश में किसी विशेष स्थिति या दुनिया भर में कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है। 

स्पेशल रैपोर्टेयर स्वैच्छिक रूप से काम करते हैं; वो संयक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और उन्हें उनके काम के लिए कोई वेतन नहीं मिलता है. ये रैपोर्टेयर किसी सरकार या संगठन से स्वतंत्र होते हैं और वो अपनी निजी हैसियत में काम करते हैं। 

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर संयुक्त राष्ट्र के स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ (विशेष रैपोर्टेयर) डेविड काए और मानवाधिकारों पर अन्तर-अमेरिकी आयोग के विशेषज्ञ एडीसन लान्ज़ा ने बुधवार को एक साझा बयान जारी करके पत्रकारों पर हमले, उनके उत्पीड़न, उन्हें हिरासत में रखने और गिरफ़्तार किए जाने पर चिन्ता जताई है। 

ग़ौरतलब है कि अमेरिका के मिनियापॉलिस शहर में एक काले अफ़्रीकी व्यक्ति जियॉर्ज फ़्लॉयड की गर्दन पर एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने कई मिनटों तक घुटना टिकाए रखा था और समझा जाता है कि दम घुटने और हालत बिगड़ने पर बाद में पुलिस हिरासत में ही उनकी मौत हो गई। 

उनकी मौत के बाद बड़े पैमाने पर अमेरिका के कई शहरों और अन्य देशों में नस्लीय न्याय की माँग करते हुए प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरे हैं। 

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय ने हाल ही में जानकारी देते बताया कि कम से कम 200 ऐसी घटनाएँ दर्ज की गई हैं जिनमें प्रदर्शनकारियों को कवर करने वाले पत्रकारों पर शारीरिक रूप से हमला किया गया, उन्हें डराया धमकाया गया या मनमाने तरीक़े से गिरफ़्तार किया गया, जबकि वो पत्रकार अपने प्रैस कार्ड पहने हुए थे। 

ताज़ा बयान में कहा गया है कि पत्रकारों के साथ ऐसा बर्ताव तब हुआ जब वे अमेरिका में ढाँचागत नस्लवाद और पुलिस क्रूरता के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों को कवर करने की अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे थे। 

उन्होंने ध्यान दिलाया है कि विरोध-प्रदर्शनों की कवरेज कर रहे पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना क़ानून-व्यवस्था से जुड़ी एजेंसियों का कर्तव्य है। 

साथ ही यह ज़रूरी है कि जनता तक ऐसे प्रदर्शनों से सम्बन्धित जानकारी पहुँच सके, यह उनका अधिकार है। 

इंडिया क्वार्टरली पत्रिका अब हिंदी में भी

 वैश्विक मामलों पर 1945 से हो रहा है लगातार प्रकाशन  
10 जून, 2020  
इंडिया क्वार्टरली, विश्व मामलों की भारतीय परिषद का वैश्विक मामलों पर 1945 से प्रमुख प्रकाशन है जिनका भारत के हितों पर प्रभाव पड़ता है। यह एक विचारक और विद्वत् समीक्षक पत्रिका है। इस पत्रिका का उद्देश्य भारत और विदेशों के विद्वानों, विश्लेषकों, नीति निर्माताओं को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और राष्ट्रीय विदेश नीतियों से संबंधित विषयों पर मौलिक लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित करना है। इसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय अभिज्ञान के महत्व के किसी भी विषय पर महत्वपूर्ण और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण को बढ़ावा देना है।
इंडिया क्वार्टरली, अब पहली बार, हमारे पाठकों के लिए हिंदी में उपलब्ध करवाई गई है। इसका पहला अंक - खंड 11, अंक 11, जनवरी 2020 का www.icwa.in अथवा www.sagebhasha.com पर ऑनलाइन अवलोकन किया जा सकता है। इंडिया क्वार्टरली का हिंदी संस्करण आईसीडब्ल्यूए द्वारा मेसर्स सेज प्रकाशन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के सहयोग से प्रकाशित किया जाएगा।
आईसीडब्ल्यूए, इस महत्वपूर्ण पहल के माध्यम से, भारत में अंतर्राष्ट्रीय मामलों और विदेश नीति से जुड़े मामलों पर हिंदी में संसूचित और सुदृढ़ संवाद करने में योगदान देना चाहता है।