आखिर हारकर....मेरी समाधि पर सर झुकाए खड़े हो जाते हो
यह सच है कि शरीर तो नश्वर ही होता है इसकी हत्या की जा सकती है, किन अमरता इससे भी बढ़ा सच है। हत्या कर के भी कुछ लोगों को कभी मिटाया नहीं जा सका। आज जब असहनशीलता फिर ज़ोरों पर है। आज फिर अमरता की चर्चा आवश्यक लग रही है। उनकी अमरता जिन शख्सियतों की जान ले कर भी उन्हें मारा नहीं जा सका। ऐसी ही अनुभूति की अभिव्यक्ति इस पोस्ट में भी है। इसमें काव्य का रंग भी है, फलसफे का रंग भी और का ज़मीन के पाताल जैसी गहराई का भी और आसमानों की ऊंचाई का भी। मनीष सिंह उनका लोकप्रिय नाम है लेकिन आजकल वह स्वयं को रिबोर्न मनीष भी कहते हैं। वैसे थोडा समझने की बात है--ज्ञान और अनुभव के बाद एक तरह से पुनर्जन्म ही तो होते है। इंसान पहले कहां रह जाता है! मनीष लम्बे समय से बहुत कुछ ऐसा लिख रहे हैं जो आपको ऐसा ज्ञान देता है जिसे सहेजना और याद रखना फायदे में ही होगा। गांधी जी की पुण्य तिथि आज ही थी 30 जनवरी का दिन बहुत कुछ याद दिलाता है। आज़ादी के कुछ ही महीनों बाद चढ़े पहले साल 1948 की 30 जनवरी। उस दुःखद दिन पर इस विशेष पोस्ट का खास महत्व है:-रेक्टर कथूरिया
सुनो!! कान खोलकर...॥
मोहन पैदा हुआ था, मोहन ही मरा हूँ।
महात्मा तुम्हारे बापों और दादो ने जबरन बना दिया। मुझे ना महात्मा बनना था, न राष्ट्रपिता
न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री ..।
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लेखक-मनीष सिंह |
हां, तुम्हारे बड़े बूढों ने जो प्यार दिया था। जब वो "बापू" कहते तो बड़ा भला लगता।
लगता.. सब मेरे बच्चे हैं, मेरी जिम्मेदारी हैं। जब सारा देश ही बापू कहने लगा, तो किसी ने उत्साह में राष्ट्रपिता कह डाला। मगर मैं तो मोहन था, मोहन ही रहा।
सुनो!! तुम्हारे बड़े बूढ़े मुझे नेता कहते थे। मगर मैने कोई चुनाव नही लड़ा, चुनावी तकरीर नही की।
कोई वादा नही किया, कोई सब्सिडी नही बांटी। मैं तो घूमता था, दोनो हाथ पसारे.. मांगता था बस प्रेम, शांति और एकता।
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बहुतों ने दिया, तो कुछ ने इन बढ़े हुए हाथों को झटक भी दिया। उन्हें इस फकीर से डर लगता था। प्रेम से डर लगता था, शांति से डर लगता था.. एकता से डर लगता था।
उन्होंने लोगो को समझाया-
नफरत करो.. तुम एक नही हो, ना कभी हो सकते हो। शांति झूठी है। लड़ो, आगे बढ़ो। मार डालो। जीत जाओ।
सुनो!! वो जीत गए।
मुझे मार डाला।
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और टुकड़े कर दिए ...हिन्दुओ के, मुसलमानों के, देश के.. दिलो के।
और वो जीतते गए है।
साल दर साल, इंच इंच, कतरा कतरा.. धर्म का नाम लेकर, जाति की बात करके, गौरव का नशा पिलाकर वो तुम्हे मदहोश करते गए। वो जीत गए।
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सुनो!! वो जीत गए.. मगर मैं नही हारा।
मैं यहीं हूँ.. इस मिट्टी में घुला हुआ। वो रोज तुम्हे एक नया नशा देते है, और नशा फटते ही मैं याद आता हूँ।
मैं तुम्हारी जागती आंखों का दुःस्वप्न हूँ। तुम हुंकार कर मुझे नकारते हो, उस नकार में ही स्वीकारते हो।
तुम्हें यकीन ही नही होता कि मैं मर चुका हूँ, तो सहमकर फिर से गोलियां चलाते हो। बार बार कब्र खोदते हो, फिर लेटकर देखते हो। कब्र छोटी पड़ती है, और खोदते हो।
थक जाते हो, आखिर हारकर .. मेरी समाधि पर सर झुकाए खड़े हो जाते हो।
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तो सुनो ,कान खोलकर। न तो तुम्हारी इज्जत से महात्मा बना था, न तुम्हारी इज्जत से कोई महात्मा बन सकता है।
असल तो ये है, जिसे तुम्हारी इज्जत हासिल हो.. वो महात्मा हो ही नही सकता।
तो मोहन की ये बात कान खोल कर सुन लो। तुमको, और तुम्हारे बाप को पीले चावल भेजकर राजघाट नही बुलाता।
श्रद्धा से भरी अंजुली न हो, तो श्रद्धांजली लेकर आना भी मत। मोहनदास करमचंद गांधी का नाम ...
तुम्हारी इज्जत का मोहताज नही है।
मनीष जी से आप यहां क्लिक करके भी मिल सकते हैं और यहां क्लिक करके भी--आपको हर बार मिलेगा कुछ ऐसा जो आपको सोचने को मजबूर ज़रुर करेगा.... उनकी पोस्ट बिना या सही गलत का फैसला आप पर ही देगी।