Tuesday, January 19, 2021

मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी से पूरा महिला वर्ग भी हुआ आहत

   सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के नाम एक महिला का पत्र 


मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आज भी संसाधनों के मामले में सचमुच बहुत बड़ा है। चाहे यह बड़प्पन गोदी में बैठ कर ही मिला हो। इसी के चलते मीडिया के इस हिस्से को भरम हो जाता है कि शायद हम झूठ को सच और सच को झूठ बना कर दिखा सकते हैं। इस भरम को जनवादी मीडिया अपने सीमित साधनों-संसाधनों से तोड़ता ही रहता है। इसी सिलसिले को आगे बढ़ा रहा है जन चौक। इस पत्र ने एक बहादर महिला का एक पत्र भी प्रकाशित किया है।  जनचौक की टिप्पणी सहित इस पत्र को यहाँ भी साभार प्रकाशित किया जा रहा है। -सम्पादक:मीडिया स्क्रीन 

जन चौक सम्पादक ने भी साफ़ शब्दों में कहा है कि किसान आंदोलन में शामिल महिलाओं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी ने पूरे देश को आहत किया है। खास कर महिलाओं को इससे गहरी पीड़ा हुई है। और लोकतांत्रिक देश में जहां हर नागरिक का बराबर का अधिकार है वहां महिलाओं को कमतर देखने का नजरिया ही बेहद परेशान करने वाला है। यह बात कोई और करता तो एकबारगी सोचा भी जा सकता था लेकिन जब देश की सर्वोच्च अदालत का मुखिया जिसके ऊपर इस देश के संविधान की रक्षा का कार्यभार है, ऐसा करता है तो मामला बेहद गंभीर हो जाता है। पढ़ी-लिखी महिलाओं के एक बड़े हिस्से ने इसका प्रतिकार किया है। और अलग-अलग तरीके से यह सिलसिला अभी भी जारी है। इतिहास की अध्यापिका और सामाजिक कार्यकर्ता आशु वर्मा ने इस मसले पर सीधे मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा है। पेश है उनका पूरा पत्र-संपादक (जन चौक) 

पत्र लिखने वाली महिला आशु वर्मा 
देश की सबसे बड़ी अदालत के महामहिम, ये आपने क्या कह दिया? ये आपने क्यों कहा? किसने आपको यह अधिकार दिया महामहिम ? आप तो संविधान की रक्षा के लिए हैं, आप तो कानूनों की सही रोशनी में व्याख्या के लिए हैं। आपसे तो उम्मीद की जाती है कि आप दबे कुचले, सताए हुए, हाशिये के लोगों, की बात सुनेंगे, उनके बिना सुनाये ही उनकी पीड़ा समझ जायेंगे, उसे संज्ञान में लेंगे और उनके लिये बेहतर कानूनों की जमीन तैयार करेंगे।

महामहिम, आप से बेहतर कौन यह जानता है कि आलोचना, आन्दोलन और विरोध लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण अवयव है। वह तो लोकतंत्र की आत्मा है। उसी से लोकतंत्र लोकतंत्र बना रहता है। और जब किसी वर्गीय आन्दोलन में उस वर्ग की आधी आबादी यानि उस वर्ग की महिलाओं की भागेदारी भारी संख्या में हो रही हो तो मामला जरूर संगीन होगा, यह तो आप भी समझते होंगे। अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस विषय पर बात कर रही हूँ।

आपने किसान आन्दोलन में शामिल महिला किसानों के बारे में कह दिया कि इन्हें आन्दोलन में नहीं शामिल होना चाहिए। इन्हें वहां से हटाया जाना चाहिए। आपने ऐसा कैसे कह दिया? महोदय, आपके इस सुझाव से मैं बेहद आहत और क्रुद्ध हूँ। आखिर न्यायापालिका के संरक्षक ने भी यही मान लिया कि ये ‘सामान्य महिलाएं’ हैं जो अपने-अपने पतियों के साथ की अर्धांगनी होने का फर्ज निभाने आई हैं। अधिकांश लोग तो यह मानते ही हैं कि ‘महिलाएं किसान नहीं होतीं’। लेकिन अफ़सोस कि आपने भी ऐसा ही माना।

आपने तो पूरा जीवन संविधान की सेवा में बिताया है। इस लम्बे न्यायिक सफ़र में तमाम समुदायों की तकलीफों भरी, न्याय मांगती याचिकाएं आपकी नजरों के सामने से गुजरी होंगी। आप से तो उम्मीद की जाती है कि ‘थोड़ा कहा ज्यादा समझना’। आप तो यह जानते ही होंगे की खेती का 75% काम महिलाएं करती हैं। अधिकांश के मन में उनके श्रम को पहचान नहीं दिए जाने का क्षोभ और गुस्सा होता है। भले ही सभी उसे व्यक्त न कर पाती हों। मैं यह सोचती थी कि संसद में बैठे लोग तो इस आकांक्षा को न तो समझ पाते हैं और न ही महसूस कर पाते हैं पर आप, एक लोकतांत्रिक संविधान, जिसकी आत्मा में समानता का मूल्य बसा है, उस संविधान के रक्षक हैं, आप कैसे इसे नहीं समझ पाए कि यहाँ आई महिलाएं सिर्फ पति का साथ निभाने नहीं आई हैं (और अगर आई भी है तो क्या? ये उनकी इच्छा और हक है) महोदय वे महिलाएं अपनी किसान होने की पहचान के नाते आई हैं, इस अहसास के साथ आई हैं कि वे किसान हैं।

वे समझ रही हैं कि किसानी कितना तकलीफदेह पेशा हो गया है। देश के धान्य-कोठारों को भरने में उनका भी पसीना बहता है। उनमें से तमाम के घरों में किसानी पर छाये संकट के कारण मौतें हुई हैं। उनके भी प्रियजनों ने इन्हीं मुसीबतों के कारण आत्महत्याएं की हैं। उनकी आत्महत्याओं के बाद कर्जे की वसूली के लिये आये बैंकों के आलिमों का यही सामना करती हैं या कर रही हैं। अधिकाँश को तो पति की मौत के बाद मुआवजा भी नहीं मिलता क्योंकि जमीन के कागजातों पर उनका नाम नहीं होता क्योंकि उन्हें किसान नहीं माना जाता। महामहिम, ये सारी बातें आपको तो पता ही होंगी। मेरा आपको बताना शोभा नहीं देता। आप बताइये कि क्या वे किसान नहीं हैं?

महोदय, ये महिलाएं खेती के तौर तरीकों पर किसी कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ा सकती हैं, कृषि पर छाये संकट, उस संकट के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-पर्यावरण और धार्मिक पहलुओं के रेशे-रेशे पर किसी मीडिया हाउस में घंटों चर्चा कर सकती हैं क्योंकि खेती ही उनका जीवन है, उसी से उनका वजूद है।

महोदय मैं तो सोचती थी कि लोकतंत्र के शीर्ष पर होने के कारण जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती मौजूदगी और हिस्सेदारी आपको तसल्ली देती होगी, आश्वस्त करती होगी। इसीलिये किसान आन्दोलन में उनकी मौजूदगी और उनकी स्वायत्तता आपको भा रही होगी। उनकी गंभीरता और आत्मविश्वास से आप खुश हो रहे होंगे। राजनीतिक रैलियों में ट्रक में भर कर आई महिलाओं और डेढ़ महीने से प्रदर्शन पर बैठीं इन किसान महिलाओं में आप अंतर कर पा रहे होंगे। खबरें तो आप तक भी पहुँच ही होंगी। आप समझ ही गए होंगे कि ये कुछ कहना चाहती हैं। ये खेती पर छाये संकट और अपनी पहचान के लिए भी आई हैं। आपको उन्हें सुनना चाहिए था महामहिम, यह उनका हक है। अपनी पहचान की उनकी लड़ाई का संज्ञान लेना चाहिए था। लेकिन अफ़सोस आपने तो उन्हें जाने के लिए कह दिया।

आप जानते ही हैं कि जिस संविधान के आप संरक्षक हैं उसे बनाने में दुर्गाबाई देशमुख, अम्मू स्वामीनाथन, बेगम एजाज़ रसूल, दाक्षायनी वेलायुधन जैसी 15 महिलाओं का भी सक्रिय योगदान रहा है। एक-एक आन्दोलन और संघर्ष से ही महिलाओं ने अधिकार हासिल किये हैं। अनेक कानूनी लडाइयां भी लड़ी हैं। किसान के रूप में उनकी पहचान को मान्यता सिर्फ उनकी ही जीत नहीं होगी बल्कि समस्त नारी समुदाय की जीत होगी और वह आगे बढ़ेंगी।

क्षमा चाहती हूँ, पर मैं खुद को रोक नहीं पाई। महामहिम, आपने हम महिलाओं को बहुत निराश किया।  

              –आशु वर्मा

Saturday, January 2, 2021

नहीं रहे रेडियो प्लेबैक वाले सक्रिय पत्रकार कृष्णमोहन मिश्रा

 टैक्स्ट के साथ आवाज़ और शब्दों के प्रयोग में भी बहुत ही कुशल थे 

लखनऊ//इंटरनेट: 2 जनवरी 2020: (मीडिया स्क्रीन ऑनलाइन डेस्क):: 

देश के हालात की मायूसी और उदासी के इस माहौल में एक और उदास  खबर आई है राजू मिश्र की एक पोस्ट के रूप में। इसमें एक बहुत अच्छे पत्रकार के बिछुड़ जाने की सूचना है। यह खबर सोशल मीडिया पर सामने आई। उदास कर देने वाली यह पोस्ट है लखनऊ के एक  ऐसे कर्मयोगी पत्रकार के निधन से सबंधित जिन्होने टैक्स्ट के साथ साथ आवाज़ के जादू को भी ब्लॉग मीडिआ के तौर पर सक्रिय हो कर इस्तेमाल किया। उनके प्रयोग बेहद सफल रहे और ने टैक्स्ट और आवाज़ के समन्वय को बहुत ही खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया। रेडियो प्लेबैक उनका बहुत ही ज़बरदस्त प्रयोग रहा जो निकट भविष्य में ही हमें नए नए आर जे भी दिया करेगा। शब्दों और आवाज़ का संमिश्रण  जादू बिखेरता। एक पूरी टीम इस सारे प्रयोग पर नज़र रखती। रेडियो ब्लॉग की दुनिया में यह बहुत  लोकप्रिय हुआ।  Krishnamohan Mishra जी की पोस्टें हमें उनकी याद दिलाती  रहेंगी। राजनीतिक विचारों के भेदभाव से ऊपर उठ कर केवल समाज और विशुद्ध पत्रकारिता के धर्म को निभाते हुए हम उन्हें याद रखें  तो यही बात हमें आगे बढ़ने की शक्ति भी देगी।  

उनके मित्र  राजू मिश्रा बताते हैं-वरिष्ठ पत्रकार कृष्णमोहन मिश्र का गुरुवार की रात लखनऊ में हृदयाघात से निधन हो गया। वे लगभग 70 वर्ष के थे। श्री मिश्र ने अपने पीछे पत्नी और दो पुत्रियों को छोड़ा है। अपरान्ह दो बजे भैंसाकुंड स्थित श्मसान घाट पर उनकी अन्त्येष्टि हुई। श्री मिश्र को उनकी बेटी ने मुखाग्नि दी।कृष्ण मोहन जी का जन्म वाराणसी में हुआ था। उनकी शिक्षा दीक्षा वाराणसी में ही हुई। उन्होंने मिर्जापुर के पालिटेक्निक से शिक्षा ग्रहण की थी। इसके बाद लखनऊ के बांस मंडी स्थित आईटीआई में प्रशिक्षक रहे। यहीं से करीब दस वर्ष पूर्व वे सेवानिवृत्त हुए। श्री मिश्र सांस्कृतिक पत्रकार भी थे। सेवा में रहते हुए उन्होंने सांस्कृतिक पत्रकारिता की। वे दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान में सांस्कृतिक संवाददाता भी रहे। इसके साथ ही वे संस्कृति और संगीत पर लगातार लेखन करते थे। सोशल मीडिया में वे लगातार संगीत और गायन की विभिन्न विधाओं पर लेखन कर रहे थे। वे उ.प्र. जर्नलिस्ट्स एसोशिएशन की पत्रिका उपजा न्यूज और संस्कार भारती की पत्रिका कला कुंज भारती के भी संपादक रहे। आजकल वे राजधानी में जानकीपुरम् क्षेत्र की इकाई के अध्यक्ष थे। गोमती नगर निवासी श्री मिश्र को बीती रात करीब नौ बजे हृदयाघात हुआ। परिवार के लोग उन्हें तत्काल डा. राम मनोहर लोहिया चिकित्सालय ले गए जहां डाक्टरों ने बताया कि तीव्र हृदयाघात से उनका निधन हो चुका है। विनम्र श्रद्धांजलि।

उनके एक और गहरे मित्र सुजॉय चटर्जी उन्हें बहुत ही स्नेह और सम्मान के स्मरण करते हुए कहते हैं-ख़ामोश हुआ "स्वरगोष्ठी" का स्वर, नहीं रहे कृष्णमोहन मिश्र जी। इस गहरे सदमे को उनके मित्र किस मुश्किल से सहन कर पा रहे हैं इसे बताना मुश्किल है। 

श्री चटर्जी कहते हैं: कृष्णमोहन जी लखनऊ के प्रसिद्ध एवम् वरिष्ठ सांस्कृतिक पत्रकार/ सम्पादक होने के साथ-साथ शास्त्रीय एवम् लोक-संगीत के विशिष्ट जानकार, विश्लेषक, समीक्षक, लेखक, जानेमाने मंच संचालक, साक्षात्कारकर्ता और ब्लॉगर भी थे। हमारे ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ नामक ब्लॉग में वे शास्त्रीय एवम् लोकसंगीत पर आधारित स्तम्भ ’स्वरगोष्ठी’ का पिछले दस वर्षों से निरन्तर संचालन करते चले आ रहे थे। इन्टरनेट पर शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक, सुगम और फिल्म संगीत विषयक चर्चा का सम्भवतः यह एकमात्र नियमित साप्ताहिक स्तम्भ है, जो विगत दस वर्षों से निरन्तरता बनाए हुए है। आज उनके चले जाने से यह स्तम्भ अनाथ हो गया।

अपनी मित्रता और उनके साथ मीडिया और जीवन से जुड़े अनुभवों के आदान प्रदान का ज़िक्र करते हुए वह भरे मन से कहते हैं-मेरा कृष्णमोहन जी से पहला परिचय वर्ष 2011 में हुआ था। उन दिनों सेवानिवृत्ति के बाद वे इन्टरनेट पर सक्रिय हो रहे थे। उन्हीं दिनों शास्त्रीय संगीत पर आधारित एक स्तम्भ हमने शुरू किया था ’सुर संगम’, पर शास्त्रीय संगीत के जानकार न होने की वजह से हमारे लिए इसे लम्बे समय तक चला पाना मुश्किल हो रहा था। मेरे मित्र Sumit Chakravarty ने भी कुछ समय तक इसे आगे बढ़ाया। उन दिनों कृष्णमोहन जी इस स्तम्भ के पाठक हुआ करते थे। उनकी नियमित टिप्पणियों को पढ़ कर मुझे और सुमित को यह आभास हो गया था कि अगर कोई इस स्तम्भ को सही तरीके से आगे बढ़ा सकते हैं तो वो कृष्णमोहन जी ही हैं। उन्हें यह प्रस्ताव देते ही वे फ़ौरन राज़ी हो गए। और उस दिन से लेकर आज तक, उन्होंने ही इस साप्ताहिक स्तम्भ का संचालन किया ’स्वरगोष्ठी’ शीर्षक से और एक भी सप्ताह ऐसा नहीं बीता कि जब ’स्वरगोष्ठी’ का अंक प्रकाशित ना हुआ हो। आज इसके 495 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। शास्त्रीय एवम् लोक संगीत के लेखों से सुसज्जित ये 495 अंक हिन्दी ब्लॉग जगत में किसी अनमोल ख़ज़ाने से कम नहीं है। इस धरोहर को हमें सहेज कर रखना है।

श्री चटर्जी बताते हैं कि कृष्णमोहन जी से मैंने बहुत कुछ सीखा है। लेखन शैली और प्रकाशनयोग्य formatting के बारे में उन्होंने तो बहुत कुछ बताया ही था, पर केवल उनको देख कर भी कई चीज़ें सीखने को मिली। वे पूरे perfection के साथ लेख लिखते थे, उनके लिखे पोस्ट्स पर किसी भी तरह की ग़लती ढूंढ पाना असम्भव सा था। वे कभी जल्दबाज़ी और shortcut में नहीं जाते थे, अगर समय ना हो तो साफ़ मना कर देते थे, पर quality के साथ कभी समझौता नहीं करते थे। वे इतने ईमानदार थे कि उनके लेखों के लिए जो भी कोई छोटी से छोटी जानकारी भी उन्हें देता था, वे उनका नाम लेख में उल्लेख करना कभी नहीं भूलते थे। ’स्वरगोष्ठी’ में जब भी कभी उन्हें किसी फ़िल्मी गीत से सम्बन्धित कोई रोचक जानकारी की आवश्यकता पड़ती थी तो वे मुझसे सलाह करते थे, और अगर मैं उन्हें कोई जानकारी उपलब्ध करवाता तो वे मेरा नाम लेख में “जानेमाने फ़िल्म इतिहासकार” के रूप में लिखते थे जिसे पढ़ कर मुझ हँसी आ जाती थी और embarrassment भी होता था क्योंकि मैं कोई फ़िल्म इतिहासकार नहीं हूँ। यह उनका बड़प्पन ही था बस! वे इतने विनयी थे कि जब भी कभी मैं उनसे कहता कि मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है तो फ़ौरन उनका जवाब होता था कि उन्होंने भी मुझसे बहुत कुछ सीखा है। प्रसिद्ध अभिनेता Pranay Dixit जी के मौसा जी लगते थे कृष्णमोहन जी। जब वर्ष 2013 में प्रणय जी की पहली फ़िल्म ’Roar’ रिलीज़ होने जा रही थी, तब कृष्णमोहन जी के ज़रिये मुझे प्रणय जी का साक्षात्कार लेने का मौका मिला। उन्होंने यह दायित्व मुझे सौंप कर मेरा सम्मान बढ़ाया था।

हालांकि दोनों मित्रों में उम्र  का अंतर भी काफी था। चटर्जी साहिब बताते हैं उम्र में मैं कृष्णमोहन जी से करीब 30 साल छोटा हूँ, पर उनसे बात करते समय कभी इसका अहसास नहीं हुआ। हमेशा ऐसा ही लगा कि जैसे हम हम-उम्र हों। वे ऐसे बात करते थे कि जैसे अपने किसी हम-उम्र दोस्त के साथ बतिया रहे हों। उन्हें जब भी कभी मेरे द्वारा लिखा कोई पोस्ट पसन्द आता था तो फ़ोन करके बधाई देते थे। मुझे याद है एक बार मैंने जब अपने किसी लेख में “साज़िन्दों” की जगह “वाद्य-वृन्द” शब्द का प्रयोग किया था, उन्हे यह इतना अच्छा लगा कि केवल यही बताने के लिए उन्होंने मुझे फ़ोन किया। वे कभी फ़ोन पर व्यक्तिगत बात या इधर-उधर की बात नहीं करते थे, सीधे काम की बात करते थे, professionalism उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। कुछ वर्ष पूर्व एक बार मैंने उनसे कहा कि मेरा बेटा शास्त्रीय संगीत सीख रहा है पर वो रियाज़ ही नहीं करता। तब कृष्णमोहन जी ने बताया कि दस वर्ष की आयु से पहले बच्चे से ज़्यादा रियाज़ ना करवाऊँ वरना आवाज़ ख़राब हो सकती है। यह बेहद महत्वपूर्ण बात उनसे जानने को मिली थी। एक बार मैंने उनसे कहा कि आपने लम्बे समय से एक ही profile pic लगा रखी है, इसे बदलते क्यों नहीं, तो बोले तो यह उनका प्रिय फ़ोटो है और उनका सबसे अच्छा फ़ोटो है। जितना मुझे याद है यह तसवीर किसी ने संगीत नाटक अकादमी में खींची थी। 

फेसबुक वाली प्रोफ़ाइल तस्वीर की तरह ही उन्होने अपने  मित्र भी नहीं बदले। जिससे मित्रता लगाई उसके साथ आखिर तक निभाया। 

कुछ सप्ताह पूर्व जब आख़िरी बार उनसे बात हुई थी तब वे काफ़ी उत्साहित थे इस बात को लेकर कि ’स्वरगोष्ठी’ के ना केवल दस वर्ष पूरे हो रहे हैं बल्कि इसके 500 अंक भी पूरे हो रहे हैं। और संयोग देखिए कि इसी सप्ताह ’स्वरगोष्ठी’ के दस वर्ष पूरे हो रहे हैं 495-वें अंक के साथ। ब्लॉगर में उन्होने इस सप्ताह का पोस्ट शेड्युल कर रखा है और इस पोस्ट में उन्होंने ’स्वरगोष्ठी’ के दस वर्ष पूर्ति पर इसके प्रथम अंक के लिए मेरे लिखे हुए लेख का एक अंश भी प्रस्तुत किया है, जिसे पढ़ कर निर्वाक् हो गया हूँ। आज कृष्णमोहन जी के इस तरह अचानक चले जाने से ऐसा लग रहा है कि जैसे एक महाशून्य सा उत्पन्न हुआ है। अभी तो उनके साथ बहुत काम करना बाकी था। उनसे बहुत सारी बातें करनी थीं। सब एक ही झटके में समाप्त हो गया। शायद इसी क्षणभंगुरता का नाम जीवन है। कृष्णमोहन जी मुझे हमें हमेशा याद रहेंगे। उनको श्रद्धांजलि स्वरूप और उनके 500-वें अंक के सपने को साकार करने हेतु हमने ’स्वरगोष्ठी’ के अन्तिम पाँच अंकों को लिखने का निर्णय लिया है। यही उनके लिए हमारी श्रद्धांजलि होगी।