Thursday, October 16, 2014

फारवर्ड प्रेस के संपादकों को मिली अग्रिम जमानत

Thu, Oct 16, 2014 at 6:05 PM
फारवर्ड प्रेस में कोई भी सामग्री आधारहीन नहीं 
नई दिल्‍ली: 16 अक्‍टूबर 2014: (पंजाब स्क्रीन ब्यूरो):
फारवर्ड प्रेस के मुख्‍य संपादक आयवन कोस्‍का और सलाहकार संपादक प्रमोद रंजन को नई दिल्‍ली के पटियाला हाऊस कोर्ट ने अग्रिम जमानत दे दी। आदालत में संपादकों का पक्ष रखते हुए ख्‍यात नारीवादी लेखक व अधिवक्‍ता अरविंद जैन, साइमन बैंजामिन तथा अमरेश आनंद ने कहा कि फारवर्ड प्रेस पर  पुलिस की कार्रवाई अभिव्‍यक्ति की आजादी पर हमला है। यहां तक कि संपादकों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153 (अ) , 295 (अ) आज की तारीख में निरर्थक हो गये हैं तथा इसका उपयोग राजनीतिक कारणों से किया जा रहा है। 
जमानत के बाद  सलाहकार संपादक प्रमोद रंजन ने उत्‍तर प्रदेश के महोबा जिले में मौजूद महिषासुर, जिन्‍हें भैसासुर के नाम से भी जानाा जाता है की तस्‍वीरें जारी करते  हुए कहा कि फारवर्ड प्रेस में कोई भी सामग्री सामग्री आधारहीन नहीं है। यह मंदिर भारतीय पुरातत्‍व विभाग द्वारा संरक्षित भी है। ऐसे सैकडों भौतिक साक्ष्‍य उपलब्‍ध हैं, जो यह साबित करते हैं कि 'दुर्गा-महिषासुर' का बहुजन पाठ अलग रहा है। उन्‍होंने कहा कि पत्रिका का इन पाठों को प्रकाशित करने का मकसद अकादमिक रहा है इसके अलावा इस पाठों के माध्‍यम से हम चाहते हैं कि विभिन्‍न समुदाय एक दूसरें की भावनाओं, परंपराओं को समझें तथा एक-दूसरे करीब आएं। फारवर्ड प्रेस का कोई इरादा किसी समुदाय की भावना को आहत करने का नहीं रहा है।
गौरतलब है कि इसके पूर्व उदय प्रकाशअरुन्धति रायशमशुल इस्लाम,शरण कुमार लिंबाले, गिरिराज किशोरआनंद तेल्तुम्बडेकँवल भारतीमंगलेश डबरालअनिल चमडियाअपूर्वानंदवीरभारत तलवारराम पुनियानी, एस.आनंद समेत 300 से हिंदी, मराठी व अंग्रेजी लेखकाें ने फारवर्ड प्रेस पर कार्रवाई की निंदा की थी। 
लेखक समुदाय ने एक संयुक्‍त बयान जारी कर कहा था कि -  यह देश विचारमत और आस्थाओं के साथ अनेक बहुलताओं का देश है और यही इसकी मूल ताकत है. लोकतंत्र ने भारत की बहुलताओं को और भी मजबूत किया है।  आजादी के बाद स्वतंत्र राज्य के रूप में भारत ने अपने संविधान के माध्यम से इस बहुलता का आदर किया और उसे मजबूत करने की दिशा में प्रावधान सुनिश्चित किये.
इस देश के अलगअलग भागों में शास्त्रीय मिथों के अपने अपने पाठ लोकमिथों के रूप में मौजूद हैं. देश के कई हिस्सों में रावण’ की पूजा होती हैपूजा करने वालों में सारस्वत ब्राह्मण भी शामिल हैं. महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर राजा बलि की पूजा की जाती हैजो वैष्णवों के मत के अनुकूल नहीं है. आज भी इस देश में असुर जनजाति के लोग रहते हैंजो महिषासुर व अन्य असुरों को अपना पूर्वज मानते हैं। हर साल मनाये जाने वाले अनेक पर्वों में धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप निर्मित छवि वाले असुरों के खिलाफ जश्न मनाया जाता हैजो एक समूह के अस्तित्व पर प्रहार करने के जाने अनजाने आयोजन हैं। 
दिल्ली से प्रकाशित फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका अक्टूबर के अपने बहुजन श्रमण परंपरा विशेषांक’ में में इस तरह की अनेक परंपराओंसांस्कृतिक आयोजनोंविचारों को सामने लायी हैजिसमें दुर्गा मिथ’ या दुर्गा की मान्यता के पुनर्पाठ भी शामिल हैं.
2011 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक छात्र समूह ने महिषासुर शहादत’ दिवस मनाने की परम्परा की शुरुआत कीजिसके बाद पिछले चार सालों में देश के सैकड़ो शहरों में यह आयोजन आयोजित होने लगा है. इस व्यापक स्वीकृति का आधार इस देश के बहुजन श्रमण परम्परा और चेतना में मौजूद है.
पिछले ९ अक्टूबर को इस कारण फॉरवर्ड प्रेस के खिलाफ दिल्ली पुलिस द्वारा अतिवादी लोगों के एक समूह के द्वारा किये गए एफ आई आर और उसके बाद पुलिस की कार्यवाई की हम निंदा करते हैं पत्रिका के ताजा अंक की प्रतियां जब्त कर ली गयी हैं तथा संपादकों के घरों पर पुलिस का छापा,  उनके दफ्तर और घरों पर निगरानी पत्रिका के कामकाज पर असर डालने के इरादे से की जा रही है. यह अभिव्यक्ति की आजादी और देश में बौद्धिक विचार परम्परा के खिलाफ हमला है. वैचारिक विरोधों को पुलिसिया दमन या कोर्ट-कचहरी में नहीं निपटाया जा सकता। अगर पत्रिका में प्रकाशित विचारों से किसी को असहमति है तो उसे उसका उत्तर शब्दों के माध्यम से ही देना चाहिए।
हम भारतीय जनता पार्टी सरकार से आग्रह करते हैं कि इस एफ आई आर को तत्काल रद्द करने का निर्देश जारी करे और पुलिस को निर्देशित करे कि इसके संपादकों के खिलाफ अपनी कार्यवाई को अविलम्ब रोका जाए.

Monday, October 13, 2014

फारवर्ड प्रेस पर पुलिस एक्शन-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला

इस नाज़ुक मोड़ पर आप किसके साथ हैं?
फारवर्ड प्रेस पर पुलिस एक्शन के खिलाफ साहित्य और पत्रकारिता जगत में आक्रोश लगातार गर्माता जा रहा है। सोशल मीडिया के साथ साथ इस एक्शन से चिंतित कलमकार फोन पर भी एक दुसरे के सम्पर्क में हैं। आशा की जानी चाहिए कि यह मामला जल्द ही सुलझा लिया जायेगा पर अगर ऐसा नहीं हो पाया तो आक्रोश की आग बहुत जल्द देश के अन्य भागों में भी भड़क सकती है।  इस तरह के बहुत से विचार आपको सोशल मीडिया पर मिलेंगे। ये एक आईना हैं---न केवल समाज के लिए या किसी एक दाल के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए। आप इस अवसर पर कहाँ खड़े हैं।  जल्द फैसला कीजिये सवाल केवल फारवर्ड प्रेस का नहीं---बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का है। सोशल मीडिया पर आ रही प्रतिक्रियाओं में लोग तेज़ी से बढ़ रहे हैं। एक मित्र ने लिखा है:

Alok Kumar हिन्दुत्व और इस्लाम के ठेकेदारों किताबों को बैन करना बंद करो, अगर किताबों मे कुछ गलत लिखा है तो पढ़ने वाला तय करेगा , तुम तय नहीं करोगे हमारे लिए की हम क्या पढ़े और क्या नहीं। अगर तुम्हारी धार्मिक भावनाओ को ठेस पहुंचती है तो , सबसे पेहले अपने ये मंदिर, मस्जिद और चर्च बंद करो। इनके होने से हम नास्तिको की अधार्मिक भावनाओ को भी ठेस पहुंचती है .
पढ़े इन दो लिंको पर कैसे हिन्दुत्व और इस्लाम के ठेकेदार तय कर रहे हैं की हम क्या पढ़े और क्या नहीं .
link 1
http://www.telegraph.co.uk/.../Salman-Rushdie-says-he-may...
link 2
http://time.com/.../sex-lies-and-hinduism-why-a-hindu.../
ज्यादा से ज्यादा शेयर करें ताकि धर्म के इन ठेकेदारों को पता चल जाये की वे हम युवा पीढी का प्रतिनिधित्व नहीं करते, और हम ऐसे संकीर्ण मानसिकता के लोगों को जोकर से ज्यादा कुछ मानते भी नहीं .

Sunday, October 12, 2014

फारवर्ड प्रेस:पुलिस एक्शन के बाद मीडिया और लेखकों में आक्रोश तेज़

यह अभिव्यक्ति की आजादी और बौद्धिक विचार परम्परा के खिलाफ हमला
फारवर्ड प्रेस पर पुलिस एक्शन के बाद मीडिया और कलमकारों में आक्रोश और तेज़ हो गया है। यदि मामला हल नहीं हुआ तो यह चिंगारी जल्द ही पूरे देश में भड़क सकती है। जिस ढंग तरीके से पुलिस को हथियार बनाकर सरकार ने अपनी मर्ज़ी पूरी की है उससे लोकतंत्र के सामने सवाल खड़े हो गए हैं। इस नाज़ुक हालत में एक बार फिर सोशल मीडिया का मंच उनका साथ दे रहा है जिन्हें अचानक दमन का शिकार बनाया गया। जो लोग समाज में एक नयी चेतना जगाने का काम कर रहे हैं उन्हें पुलिस से बचने के लिए दिन रात अपने स्थान बदलने पढ़ रहे हैं। इस सबके बावजूद फारवर्ड प्रेस की टीम इस बात पर अड़ी हुई है कि सिद्धांत की इस जंग में अब वह पीछे नहीं हटेंगे। हो सकता है हम यहाँ कुछ जज़्बाती होकर कह बैठे हों। इसलिए अच्छा हो आप एक बार खुद उस अंक को पढ़िए जिसे पूरे का पूरा प्रेस से ही उठकर ज़ब्त कर लिया गया। इस अचानक एक्शन से सभी भौचक्के रह गए पर इस संवेदनशील वक़्त में भी फारवर्ड प्रेस की टीम ने घैर्य से काम लिया और पूरा अंक पीडीएफ में संजो कर नेट पर डाल दिया। लोगों तक बात पहुँचाने का मकसद पूरा हो रहा है और बहुत तेज़ी से हो रहा है। आप इसे यहाँ क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं। 
इसी बीच एक अभियान देश के बहुत से हिस्सों में शुरू हो चूका है। कलमकार इस पुलसिया छापे की सख्त निंदा कर रहे हैं। फारवर्ड प्रेस के हक में सेमिनारों, धरनों और प्रदर्शनों की योजना बनाई जा रही है। देश भर से साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने फॉरवर्ड प्रेस पर हुए हमले के खिलाफ यह अपील जारी की है . यदि आप सहमत हों तो कमेन्ट में अपना भी हस्ताक्षर अग्रेसित करें:
अपील : 
यह देश विचार, मत और आस्थाओं के साथ अनेक बहुलताओं का देश है और यही इसकी मूल  बाद ताकत है. लोकतंत्र ने भारत की बहुलताओं को और भी मजबूत किया है. आजादी के बाद स्वतंत्र राज्य के रूप में भारत ने अपने संविधान के माध्यम से इस बहुलता का आदर किया और उसे मजबूत करने की दिशा में प्रावधान सुनिश्चित किये.
इस देश के अलग –अलग भागों में शास्त्रीय मिथों के अपने अपने पाठ लोकमिथों के रूप में मौजूद हैं. देश के कई हिस्सों में ‘रावण’ की पूजा होती है, पूजा करने वालों में सारस्वत ब्राह्मण भी शामिल हैं. महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर राजा बलि की पूजा की जाती है, जो वैष्णवों के मत के अनुकूल नहीं है. आज भी इस देश में असुर जनजाति के लोग रहते हैं, जो महिषासुर व अन्य असुरों को अपना पूर्वज मानते हैं। हर साल मनाये जाने वाले अनेक पर्वों में धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप निर्मित छवि वाले असुरों के खिलाफ जश्न मनाया जाता है, जो एक समूह के अस्तित्व पर प्रहार करने के जाने –अनजाने आयोजन हैं.
दिल्ली से प्रकाशित फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका अक्टूबर के अपने ‘बहुजन –श्रमण परंपरा विशेषांक’ में इस तरह की अनेक परंपराओं, सांस्कृतिक आयोजनों, विचारों को सामने लायी है, जिसमें ‘दुर्गा –मिथ’ या दुर्गा की मान्यता के पुनर्पाठ भी शामिल हैं.
2011 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक छात्र समूह ने ‘महिषासुर शहादत’ दिवस मनाने की परम्परा की शुरुआत की, जिसके बाद पिछले चार सालों में देश के सैकड़ो शहरों में यह आयोजन आयोजित होने लगा है. इस व्यापक स्वीकृति का आधार इस देश के बहुजन –श्रमण परम्परा और चेतना में मौजूद है.
पिछले ९ अक्टूबर को इस कारण फॉरवर्ड प्रेस के खिलाफ दिल्ली के वसंतकुञ्ज थाणे में अतिवादी छात्रों के एक समूह के द्वारा किये गए एफ आई आर और उसके बाद पुलिस की कार्यवाई की हम घोर निंदा करते हैं. फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के नेहरु प्लेस स्थित दफ़्तर पर दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा द्वारा 9 अक्टूबर को छापा मार कर चार कर्मचारियों की हिरासत में लेने तथा वहाँ से पत्रिका की प्रतियां जब्त करने की घटना बेहद चिंताजनक और निंदनीय है. पुलिस के पास अपनी इस कार्रवाई के लिए कोई अदालती आदेश या सक्षम प्राधिकारी का आदेश नहीं था. संपादकों के घरों पर पुलिस की दबीश, दफ्तर और घरों पर निगरानी पत्रिका के कामकाज पर असर डालने के इरादे से की जा रही है. ऐसा लगता है कि पुलिस ऐसी किसी फर्जी शिकायत के इन्तजार में थी ताकि वही अति सक्रिय हो सके. यह अभिव्यक्ति की आजादी और देश में बौद्धिक विचार परम्परा के खिलाफ हमला है.
हम भारतीय जनता पार्टी सरकार से आग्रह करते हैं कि इस एफ आई आर को तत्काल रद्द करने का निर्देश जारी करे और पुलिस को निर्देशित करे कि इसके संपादकों के खिलाफ अपनी कार्यवाई को अविलम्ब रोका जाए.
चिंतित लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता
In English
Police action on FORWARD Press and FIR against its editors condemnable
India is a country of many faiths, thoughts and beliefs. It is a land of diversities and therein lies its strength. Democracy has strengthened our diversity. After Independence, the Indian Constitution duly recognised this diversity and provided for protection and preservation of the same.
In different parts of the country, various religious and folk myths are prevalent. In some places, Ravana is worshipped and among the worshippers are Saraswat Brahmins. In Maharashtra, Raja Bali is worshipped, which is something Vaishnavites may not agree with. India is also home to the Asur tribe, which believes that Mahishasur and other Asurs were its forefathers. Several religious functions celebrated with great gusto rely on the image of Asurs, as created by some religious texts. This may be hurtful to those who do not view Asurs as demons.
The Delhi-based FORWARD Press magazine, in its October 2014 issue centered on Bahujan-Shraman tradition has brought to fore several such traditions, cultural functions, beliefs and thougts. And these included a re-rendition of the 'myth' of Durga.
In 2011, a group of students of JNU started celebrating 'Mahishasur Martyrdom Day' and over the last four years, the celebration of this Day has started in many places in the country.
On October 9, a group of extremist students lodged an FIR against FORWARD Press in Vasant Kunj police station of New Delhi. We condemn the arbitrary police action that followed the registration of the FIR. Without any proper enquiry or probe and without any order from a court or a competent authority, the special branch of Delhi police raided the office of the FP, picked up four of its staffers and seized copies of the magazine. We strongly condemn the police action.
This, coupled with the police raids on the homes of the editors of the magazine and the surveillance mounted at the office and the residences of the editors seems to be aimed at disrupting the publication of the magazine. This is also a wanton assault on the fundamental right to freedom of expression and the tradition of free discourse in our country.
We demand that the BJP government should order immediate withdrawal of the case and order the police to stop its illegal action against the magazine and its editorial staff.
Concerned writers and social activists
अनिल चमडिया
एल एस हरदेनिया
प्रेम कुमार मणि
वीरेंद्र यादव
अपूर्वानंद
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
संजीव कुमार
संजीव चन्दन
मोहम्मद इमरान
राम पुनियानी
डा मुसाफिर बैठा
अफलातून अफलू
मनीष रंजन
कमल भारती
निवेदिता झा
कृष्णकांत
रेक्टर कथूरिया
रमेश ठाकुर
कुमार प्रशांत
बिरेन्द्र यादव
अशोक दास
ओम सुधा
गुलज़ार हुसैन
वीरेंद्र मीणा
आलोक मिश्रा
आशीष कुमार अंशु
लाल बाबू ललित
अनिता भारती
सुशील कुमार शीलू
राजीव मणि
तपन
अखिलेश प्रसाद
रजनी तिलक
राजेन्द्र प्रसाद सिंह
रजनीश कुमार झा
मंगलेश डबराल
कँवल भारती
राकेश सिंह
हिमांशु पांड्या
अशोक यादव
अजीत राठौर
चन्द्र भूषण सिंह यादव
वी. उदय भान सिंह
पवन के श्रीवास्तव
रमेश गौतम
निर्दोष कुशवाहा
अजीत कुमार ददौरिया
हरेराम सिंह
संदीप मील
अशोक दास
राकेश गौतम

http://www.streekaal.com/2014/10/blog-post_40.html

Saturday, October 11, 2014

फॉरवर्ड प्रेस के समर्थन में आगे आये लेखक संगठन

बिहार के भागलपुर में पुलिस दमन के खिलाफ प्रदर्शन

जनवादी लेखक संघ ने आज अपने प्रेस नोट में ( नीचे उद्धृत ) फारवर्ड प्रेस के बहुजन श्रमण अंक का समर्थन करते हुए फॉरवर्ड प्रेस के खिलाफ पुलिस दमन की निंदा की है वहीं बिहार के भागलपुर में फोरम फॉर फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन ने प्रतिरोध मार्च निकाला . फोरम के संयोजक ओम सुधा ने कहा कि गृह मंत्रालय को तत्काल प्रभाव से फॉरवर्ड प्रेस के खिलाफ ऍफ़ आई आर वापस लेनी चाहिए.
​ पटना में लेखकों ने बैठक की और पुलिस कार्रवाई की कडी निंदा भी की तथा कहा कि पुलिस की यह कार्रवाई भारतीय संविधान के खिलाफ है, जो अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता देता है। ​
इस बीच दक्षिणपंथी छात्रों के समूह ने वसंतकुंज थाने में एक और शिकायत भेजकर चित्रकार लाल रत्नाकर,जिन्होंने दुर्गा मिथ के नए पाठ के साथ चित्र कथा प्रस्तुत की है तथा फॉरवर्ड प्रेस के एक लेखक के खिलाफ कारवाई की मांग की है.
Contac​t 
 : 9155326597, Om Sudha 
जनवादी लेखक संघ का प्रेस बयान 
(11-10-2014)
फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के नेहरु प्लेस स्थित दफ़्तर पर दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा द्वारा 9 अक्टूबर को छापा मार कर चार कर्मचारियों की गिरफ़्तारी और अगले दिन, 10 अक्टूबर को विभिन्न विक्रेताओं के यहाँ से उक्त पत्रिका की प्रतियों की ज़ब्ती बेहद चिंताजनक और निंदनीय घटनाक्रम है. पुलिस के पास अपनी इस कार्रवाई के लिए कोई अदालती आदेश या सक्षम प्राधिकारी का आदेश नहीं था. बताया जाता है कि यह कार्रवाई वसंत कुञ्ज पुलिस थाने में दर्ज की गयी एक शिकायत के आधार पर की गयी है. पत्रिका का यह अंक बहुजन-श्रमण परम्परा पर केन्द्रित है. दुर्गा के हाथों असुर जाति के राजा महिषासुर के वध की पौराणिक कथा को आर्य-अनार्य संघर्ष की एक कड़ी के रूप में चिन्हित करते हुए इसे महिष की शहादत के तौर पर व्याख्यायित करने वाले लेख इस अंक में हैं. यह हिन्दुत्ववादियों की नाराजगी का सबब हो सकता है, जिन्होंने पहले भी ऐसे मुद्दों पर आस्था को आहत करने का नुक्ता उठा कर हंगामे किये हैं. 9 अक्टूबर की शाम को जे एन यू में महिषासुर शहादत दिवस मनाये जाने के मौक़े पर भी आर एस एस के छात्र मोर्चे, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने उत्पात मचाया. दिल्ली पुलिस की कार्रवाई और ए बी वी पी का उत्पात, दोनों एक ही श्रृंखला की कड़ियाँ हैं. हम इसे केंद्र में भाजपा के आने के बाद प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी ताक़तों के बुलंद होते हौसले और पुलिस-प्रशासन के स्तर पर उन्हें उपलब्ध कराई जा रही सहूलियतों के ख़तरनाक उदाहरण के रूप में देखते हैं.

जनवादी लेखक संघ उक्त पत्रिका पर बिना अदालती आदेश के की गयी इस कार्रवाई और अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ ऐसे असंवैधानिक खिलवाड़ की कठोर शब्दों में भर्त्सना करता है. जनेवि में महिषासुर शहादत दिवस के मौके पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के उत्पात की भी हम निंदा करते हैं. कार्रवाई, दरअसल, उन उपद्रवियों के ख़िलाफ़ होनी चाहिए जो असहमतियों को लोकतांत्रिक मर्यादा के भीतर रह कर व्यक्त करना नहीं जानते. असहमतियों की अभिव्यक्ति के इन लोकतंत्र-विरोधी तौर-तरीक़ों को भाजपा के शासन में जिस तरह खुली छूट मिल रही है, वह चिंताजनक है. भाजपा नेता सुब्रमन्यम स्वामी का तीन दिन पहले दिया गया यह बयान कि बिपन चन्द्र और रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों की किताबें जला देनी चाहिए, ऐसे ही तौर-तरीक़ों का एक नमूना है.

जनवादी लेखक संघ इस प्रवृत्ति के भर्त्सना करते हुए सभी धर्मनिरपेक्ष और जम्हूरियतपसंद लोगों से इसके ख़िलाफ़ एकजुट होने की अपील करता है. हम सरकार से यह मांग करते हैं कि फॉरवर्ड प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित करे, उस पर हुए ग़ैरकानूनी पुलिसिया हमले की सख्ती से जांच हो, उसे अंजाम देने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई की जाए और जनेवि में महिषासुर शहादत दिवस के मौक़े पर तोड़-फोड़ करनेवाले तत्वों के ख़िलाफ़ भी क़ानूनी कार्रवाई की जाए. 

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह                                  संजीव कुमार 
   (महासचिव)                                         (उप-महासचिव)


फारवर्ड प्रेस के ज़ब्त किये गए अंक में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं

Thursday, October 9, 2014

फारवर्ड प्रेस के ज़ब्त किये गए अंक में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं

"हम अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर हुए इस हमले की भर्त्‍सना करते हैं" 
भूमिगत हुए सलाहकार संपादक प्रमोद रंजन ने फेसबुक पर जारी किया विशेष बयान
प्रमोद रंजन 
फारवर्ड प्रेस का ज़ब्त किया गया विशेषांक 
फारवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक प्रमोद रंजन ने गुरूवार को जारी प्रेस बयान में कहा कि '' हम फारवर्ड प्रेस के दिल्‍ली कार्यालय में वसंत कुंज थाना, दिल्‍ली पुलिस के स्‍पेशल ब्रांच के अधिकारियों द्वारा की गयी तोड-फोड व हमारे चार कर्मचारियों की अवैध गिरफ्तारी की निंदा करते हैं। फारवर्ड प्रेस का अक्‍टूबर, 2014 अंक 'बहुजन-श्रमण परंपरा' विशेषांक के रूप में प्रकाशित है तथा इसमें विभिन्‍न प्रतिष्ठित विश्‍वविद्यलयों के प्राध्‍यापकों व नामचीन लेखकों के शोधपूर्ण लेख प्रकाशित हैं। विशेषांक में 'महिषासुर और दुर्गा' की कथा का बहुजन पाठ चित्रों व लेखों के माध्‍यम से प्रस्‍तुत किया गया है। लेकिन अंक में कोई भी ऐसी सामग्री नहीं है, जिसे भारतीय संविधान के अनुसार आपत्तिजनक ठहराया जा सके। बहुजन पाठों के पीछे जोतिबा फूले, पेरियार, डॉ् आम्‍ब्‍ेडकर की एक लंबी परंपरा रही है। हम अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर हुए इस हमले की भर्त्‍सना करते हुए यह भी कहना चाहते हैं कि यह कार्रवाई स्‍पष्‍ट रूप से भाजपा में शामिल ब्राह्मणवादी ताकतों के इशारे पर हुई है। देश के दलित-पिछडों ओर अादिवासियों की पत्रिका के रूप में फारवर्ड प्रेस का अस्त्त्वि इन ताकतों की आंखों में लंबे समय से गडता रहा है। फारवर्ड प्रेस ने हाल के वर्षों में इन ताकतों की ओर से हुए अनेक हमले झेले हैं। इन हमलों ने हमारे नैतिक बल को और मजबूत किया है। हमें उम्‍मीद है कि इस संकट से मुकाबला करने में हम सक्षम साबित होंगे। '' 
---- 
एक आपात स्थिति में मुझे फेसबुक पर लौटना पडा है। फारवर्ड प्रेस कार्यालय में आज सुबह पुलिस ने छापा मारा तथा हमारा 'बहुजन-श्रमण परंपरा विशेषांक' (अक्‍टूबर, 2014) के अंक जब्‍त करके ले गयी। हमारे ऑफिस के ड्राइवर प्रकाश व मार्केटिंग एक्‍सक्‍यूटिव हाशिम हुसैन को भी अवैध रूप से उठा लिया गया है। मुझे भूमिगत होना पडा है। मैं जहा हूं, वहां मेरे होने की आशंका पुलिस को है। इस जगह के सभी गेटों पर गिरफ्तारी के लिए पुलिस तैनात कर दी गयी है। शायाद वे जितेंद्र यादव को भी गिरफ्तार करना चाहते हैं ताकि आज (9 अक्‍टूबर) रात जेएनयू में आयोजित महिषासुर दिवस को रोका जा सके। हमें अभी तक किसी भी प्रकार के एफआइअार की कॉपी भी नहीं मिल पायी है। लेकिन जाहिर है कि यह कार्रवाई 'महिषासुर' के संबंध में फारवर्ड प्रेस द्वारा लिये गये स्‍टैंड के कारण कार्रवाई की गयी है।
मैं इस संबंध में अपना पक्ष मैं प्रेमकुमार मणि के शब्‍दों में रखना चाहूंगा। प्रेमकुमार मणि की यह निम्‍नांकित टिप्‍पणी 'महिषासुर' नामक पुस्‍तक में संकलित है। इस पुस्‍तक का भी विमोचन आज रात जेएनयू में आयो‍जित 'महिषासुर दिवस' पर किया जाना था/ है। इस आपधापी के सिर्फ इतना कहूंगा कि आप इसे पढें और अपना पक्ष चुनें। हमें आपसे नैतिक बल की उम्‍मीद है।
त्‍याओं का जश्‍न क्यों? 
प्रेमकुमार मणि

जब असुर एक प्रजाति है तो उसके हार या उसके नायक की हत्या का उत्सव किस सांस्कृतिक मनोवृति का परिचायक है? अगर कोई गुजरात नरसंहार का उत्सव मनाए या सेनारी में दलितों की हत्या का उत्सव, भूमिहारों की हत्या का उत्सव तो कैसा लगेगा? माना कि असुरों के नायक महिषासुर की हत्या दुर्गा ने की और असुर परास्त हो गए तो इसे प्रत्येक वर्ष उत्सव मनाने की क्या जरूरत है। आप इसके माध्यम से अपमानित ही तो कर रहे हैं।

महिषासुर की शहादत दिवस के पीछे किसी के अपमान की मानसिकता नहीं है। इसके बहाने हम चिंतन कर रहे हैं आखिर हम क्यों हारे? इतिहास में तो हमारे नायक की छलपूर्वक हत्या हुई, परंतु हम आज भी छले जा रहे हैं। दरअसल, हम इतिहास से सबक लेकर वर्तमान अपने को उठाना चाहते हैं। महिषासुर शहादत दिवस के पीछे किसी के अपमानित करने का लक्ष्य नहीं हैं।
हमारे सारे प्रतीकों को लुप्त किया जा रहा है। यह तो इन्हीं कि स्रोतों से पता चला है कि एकलव्य अर्जुन से ज्यदा धनुर्धर था। तो अर्जुन के नाम पर ही पुरस्कार क्यों दिए जा रहे हैं एकलव्‍य के नाम पर क्यों नहीं? इतिहास में हमारे नायकों को पीछे कर दिया गया। हमारे प्रतीकों को अपमानित किया जा रहा है। हमारे नायकों के छलपूर्वक अंगूठा और सर काट लेने की प्रथा से हम सवाल करना चाहते हैं। इन नायकों का अपमान हमारा अपमान है। किसी समाज, विचारधारा, राष्‍ट्र का। वह मात्र कपड़े का टुकड़ा नहीं होता।

गंगा को बचाने की बात हो रही है। तो इसका तात्पर्य यह थोड़े ही है कि नर्मदा, गंडक या अन्य नदियों को तबाह किया जाय। अगर गंगा के किनारे जीवन बसता है तो नर्मदा, गंडक आदि नदियों के किनारे भी तो उसी तरह जीवन है। गंगा को स्वच्छ करना है तो इसका तात्पर्य थोडे हुआ कि नर्मदा को गंदा कर देना है। हम तो एक पोखर को भी उतना ही जरूरी मानते हैं जितना कि गंगा। गाय की पूजनीय है तो इसका अर्थ यह थोडे निकला कि भैस को मारो। जितना महत्वपूर्ण गाय है उतनी ही महत्वपूर्ण भैंस भी है। हालांकि भैंस का भारतीय समाज में कुछ ज्यादा ही योगदान है। भौगोलिक कारणों से भैस से ज्यादा परिवारों का जीवन चलता है। अगर गाय की पूजा हो सकती है तो उससे ज्यादा महत्वपूर्ण भैंस की पूजा क्यों नहीं? भैंस को शेर मार रहा है और उसे देखकर उत्सव मना रहे हैं। क्या कोई शेर का दूध पीता है। शेर को तो बाडे में ही रखना होगा। नहीं तो आबादी तबाह होगी। आपका यह कैसा प्रतीक है? प्रतीकों के रूप में क्या कर रहे हैं आप?
यह किस संस्कृतिक की निशानी है। पारिस्थितिकी संतुलन के लिए प्रकृति में उसकी भी जरूरत है परंतु खुले आबादी में उसे खुला छोड दिया तो तबाही मचा देगा।
हम अपने मिथकीय नायकों में माध्यम से अपने पौराणिक इतिहास से जुड़ रहे हैं। हमारे नायकों के अवशेषों को नष्‍ट किया गया है। बुद्ध ने क्या किया था कि उन्हें भारत से भगा दिया। अगर राहुल सांकृत्यायन और डॉ अम्बेडकर उन्हें जीवित करते हैं तो यह अनायास तो नहीं ही है।महिषासुर के बहाने हम और इसके भीतर जा रहे हैं। अगर महिषासुर लोगों के दिलों को छू रहा है तो इसमें जरूर कोई बात तो होगी। यह पिछडे तबकों का नवजागरण है। हम अपने आप को जगा रहे हैं। हम अपने प्रतीकों के साथ उठ खड़ा होना चाहते हैं। दूसरे को तबाह करना हमारा लक्ष्य नहीं हैं। हमारा कोई संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं है। यह एक राष्‍ट्रभक्ति और देश भक्ति का काम है। एक महत्वपूर्ण मानवीय काम।
महिषासुर दिवस मनाने से अगर आपकी धार्मिक भावनाएं आहत हो रही हैं तो हों। आपकी इस धार्मिक तुष्टि के लिए हम शुद्रों का अछूत, स्त्रियों को सती प्रथा में नहीं झोंकना चाहते। हम आपकी इस तुच्छ धार्मिकता विरोध करेंगे। ब्राम्हण को मारने से दंड और दलित को मारने से मुक्ति यह कहां का धर्म है? यह आपका धर्म हो सकता है हमारा नहीं। हमें तो जिस प्रकार गाय में जीवन दिखाई देता है उसी प्रकार सुअर में भी। हम धर्म को बड़ा रूप देना चाहते हैं। इसे गाय से भैंस तक ले जाना चाहते हैं। हम तो चाहते हैं कि एक मुसहर के सूअर भी न मरे। हम आपसे ज्यादा धार्मिक हैं।
आपका धर्म तो पिछड़ों को अछूत मानने में हैं तो क्या हम आपकी धार्मिक तुष्टि लिए अपने आप को अछूत मानते रहे। संविधान सभा में ज्यादातर जमींदार कह रहे थे कि जमींदारी प्रथा समाप्त हो जाने से हमारी जमींने चली जाएगीं तो हम मारे जाएंगे। तो क्या इसका तात्पर्य कि जमींदारी प्रथा जारी रखाना चाहिए। दरअसल, आपका निहित स्वार्थ हमारे स्वार्थों से टकरा रहा है। वह हमारे नैसर्गिक स्वार्थों को भी लील रहा है। आपका स्वार्थ और हमारा स्वार्थ अलग रहा है, हम इसमें संगति बैठाना चाहते हैं।
दुर्गा का अभिनंदन और हमारे हार का उत्सव आपके सांस्कृतिक सुख के लिए है। लेकिन आपका सांस्कृतिक सुख तो सती प्रथा, वर्ण व्यवस्था, छूआछूत, कर्मकाण्ड आदि में है तो क्या हम आपकी संतुष्टि के लिए अपना शोषण होंने दें। आपकी धार्मिकता में खोट है।
महिष का तात्पर्य भैंस। असुर एक प्रजाति है। असुर से अहुर और फिर अहिर बना होगा। जब सिंधु से हिन्दु बन सकता है तो असुर से अहुर क्यों नहीं। आपका भाषा विज्ञान क्यों यहां चूक जा रहा है। हम तो जानना चाहते है कि हमारा इतिहास हो क्या गया? हम इतने दरिद्र क्यों पड़े हुए हैं।
मौजूदा प्रधानमंत्री गीता को भेट में देते हैं। गीता वर्णव्यवस्था को मान्यता देती है। हमारे पास तो बुद्धचरित और त्रिपिटक भी है। हम सम्यक समाज की बात कर रहे हैं। आप धर्म के नाम पर वर्चस्व और असमानता की राजनीति कर रहे हैं जबकि हमारा यह संघर्ष बराबरी के लिए है।
(अगर आप फारवर्ड प्रेस का पुलिस द्वारा उठाया गया अंक पढना चाहते हैंं तो इस लिंक पर जाएं - https://www.scribd.com/…/242…/2014-October-Forward-Press-PDF)

फॉरवर्ड प्रेस के समर्थन में आगे आये लेखक संगठन

Sunday, September 14, 2014

नामधारी विवाद: ठाकुर दिलीप सिंह की ओर से अहम ऐलान आज

कुली वालों के डेरे में विशेष प्रेस कांफ्रेंस बाद दोपहर दो बजे 
File Photoलुधियाना में भूख हड़ताल के आखिरी दिन 22 अगस्त को क्लिक की गयी तस्वीर 
लुधियाना: 13 सितम्बर 2014: (मीडिया स्क्रीन ब्यूरो)
नामधारी पंथ सतगुरु जगजीत सिंह के पंचतत्व में विलीन होने के बाद गहन संकट में है। गुर-गद्दी और जांनशीनी को लेकर ठाकुर उदय सिंह और ठाकुर दिलीप--दोनों भाई आमने सामने हैं। गौरतलब है कि  नामधारी पंथ की गद्दी पर ठाकुर उदय सिंह बिराजमान हैं।  उनके बड़े भाई ठाकुर दिलीप सिंह के समर्थक उनका विरोध कर रहे हैं। इस सारे विवाद में नाज़ुक मोड़ उस समय आया जब ठाकुर दिलीप सिंह  के समर्थकों ने लुधियाना में डीसी कार्यालय के सामने पहली अगस्त से 22 अगस्त तक लगातार सिलसिले वार भूख हड़ताल की। इस भूख हड़ताल से पूर्व और बाद में हिंसक टकराव भी हो चुके हैं। अब ठाकुर दिलीप सिंह 14 सितंबर को अमृतसर में महत्वपूर्ण ऐलान करने वाले हैं। इस आशय  की प्रेस कांफ्रेंस रविवार 14 सितम्बर को बाबा दर्शन सिंह कुली वालों के डेरे में बाद दोपहर दो बजे हो रही है। इस संबंध में अधिक विवरण श्री साहिब सिंह से मोबाईल नंबर--097813-59999 पर समरक करके लिया जा सकता है।  

Saturday, September 6, 2014

अब फिर लौट रहा है रेडियो का ज़माना

06-सितम्बर-2014 18:34 IST
प्रधानमंत्री ने रेडियो के जरिए जुड़ने के लिए लोगों से सुझाव मांगे
नई दिल्ली: 6 सितमबर 2014: (रेक्टर कथूरिया//मीडिया स्क्रीन):
कभी  रेडियो का ही ज़माना था। रेडियो ने हिंदी-पंजाबी के साथ साथ अन्य भारतीय भाषाओं के गीत संगीत को भी दूर दूर तक पहुँचाया।  वर्ष 1984 में हुए ब्ल्यू स्टार आप्रेशन जैसी संवेदनशील कार्रवाई तक भी लोग रेडियो पर ही निर्भर थे। विविध भारती हो या तामील-ए-इरशाद या फिर बिनाका गीत माला लोग पूरे ध्यान से सुनते थे। रेडियो की फरमायश में अपना नाम बुलवाने की एक होड़ सी रहती थी। पोस्ट कार्डों के बंडलों के बंडल इस फरमायश के लिए पोस्ट किये जाते थे। आल इंडिया उर्दू सर्विस  (तामील-ए-इरशाद) शमीम कुरैशी, अज़रा कुरैशी, जालंधर की चन्द्रकिरण, हेमराज शर्मा, जानकीदास भारद्धाज  और रेडियो सिलोन के अमीन सयानी से मिलना एक सपना समझा जाता था। रेडियो के रिसेप्शन रूम में मनाही के बावजूद लोग इनसे  मिलते थे। घंटों इनका इंतज़ार करते थे। श्रोता क्लब बनाने का रिवाज सा हो गया था पर दूरदर्शन के बाद रेडियो का जादू कुछ कम  होने लगा।  फिर केबल का ज़माना आते ही इसे ग्रहण लग गया।  अब रेडियो में उतनी भीड़ नहीं होती। इसके बावजूद रेडियो का ज़माना फिर से लौट रहा है। उसके कई कारण है। रेडियो को अपने सिरहाने रख कर आँखें बंद करके सुना जा सकता है। उसके लिए काम छोड़ने की तो कतई कोई आवश्यकता नहीं। ऍफ़ एम और मोबाईल फोन में रेडियो सुनने की सुविधा ने इसकी खूबियों को दोबारा उजागर किया है।
  
इसके साथ ही चमत्कार हुआ है सरकार की तरफ से। इसकी आशा नहीं थी लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने इस तरफ विशेष तवज्जो दी है। पीआईबी की एक सूचना के मुताबिक प्रधानमंत्री श्री मोदी ने रेडियो के जरिए जुड़ने के लिए लोगों से सुझाव मांगे हैं। प्रधानमंत्री ने लोगों से कहा है कि वे इस संबंध में अपने विचार माईगव प्‍लेटफॉर्म-www.mygov.in पर साझा करें। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब रेडियो के अच्छे दिन आने वाले हैं। क्या आप रेडियो से जुड़ना चाहते हैं? अगर हाँ तो अब देर न कीजिये--तुरंत भेजिए अपने कीमती सुझाव। 
गौरतलब है कि रेडियो ने 1962, 1965  और 1971  में लोगों का मनोबल मज़बूत करने और सूचनाओं का आदान प्रदान करने में महत्वपूर्ण सूचना निभाई थी। सैनिक भाईयों के लिए फरमाइशी कार्यक्रम आज भी लोकप्रिय हैं। 
वि.कासोटिया/अर्चना/आरआरएस/एसएनटी-3569




Monday, April 14, 2014

ये बता आज कौन सा प्रेस वाला बिना पैसे लिए खबर छापता है...?

लागा चुनरी पे दाग छुपायुं कैसे----------
आज़मगढ़ के अवनीश राय आजकल दिल्ली में बसे हुए हैं। पेशे से पत्रकार है और हर तरह से सैटल भी।  अच्छा चैनल--अच्छी ज़िंदगी लेकिन सक बोलना--दलील से बात करना---जैसा सोचना वैसा करना---बहुत सी "बुरी आदतें" हैं।  कुछ रोको तोको तो हंस कर ताल देते हैं। उनकी नयी पोस्ट फिर कि लिहाज़ वह अपने पेशे से जुड़े बहिचारे का भी नहीं करते। पूरा माजरा क्या है---आप खुद ही पढ़ लीजिये। स्थान दिल्ली का है और पोस्ट करने का समय 14 अप्रैल 2014 सोमवार को सांय 4:28 पर लेकिन इस हकीकत को आप कहीं भी देख सकते है---महसूस कर सकते हैं। आपके विचारों की इंतज़ार रहेगी ही। -रेक्टर कथूरिया 
आज सुबह भाई को स्टेशन से लेने पुरानी दिल्ली पहुंचा। अंदर घुस ही रहा था कि सीढियों के पास खड़े टीटी पर नजर पड़ी। वे दो थे और एक सूटेड-बूटेड शख्स से बहस कर रहे थे। हालांकि बिना टिकट यात्रियों या पहली बार दिल्ली आने वाले यूपी बिहार के लोगों के झोरा - झंपट पकड़कर उनसे वसूली के लिए कुख्यात इन टीटियों की टें-पें से तो अब खूब वाकिफ हो चुके हैं लेकिन ये बहस कुछ अलग थी। मैं भी थोड़ा रूक गया।
शख्स - सर मैं भी स्टाफ हूं। प्रेस से हूं। 
टीटी - ना भाई...255 रूपये तो देने ही होंगे।
शख्स - सर, मैं प्रेस से हूं
टीटी - कौन से प्रेस से...
शख्स - इलेक्ट्रानिक मीडिया से हूं सर..
टीटी - तो क्या हुआ भाईइइइ...पैसे तो देने ही पड़ेंगे...
शख्स - सर, प्रेस....
टीटी - भाईइइ..ये बता आज कौन सा प्रेस वाला बिना पैसे लिए खबर छापता है...तू भी तो पैसे लेता होगा...क्यों?
शख्स - क्या बात करते हैं सर..हम पैसे नहीं लेते..
टीटी - ना भाईइइ...आज तो कोई प्रेस वाला ना है..जो बिना पैसे के खबर छापता हो
शख्स - अरेsss सर...
दूसरा टीटी - जा भाई...पर आज के बाद ना जाने दूंगा ऐसे...

Saturday, March 8, 2014

ओपिनियन पोल धोखा है, जाग जाओ मौक़ा है

हमेश सारे सर्वे बीजेपी को ही जीतते है 2004 .2009 में येही होया था
Comrade Aman Mishra Dyfi On Friday 7th March 2014 at 6:20 PM
कई राजनैतिक पार्टियाँ अपनी छवि सुधारने के लिए देशी-विदेशी एजेंसियों और कंपनियों को करोड़ों रूपये का ठेका दे रखी हैं,जबकि विकास के मसले पर धन के अभाव का रोना रोती रही हैं। वोट हासिल करने के लिए विज्ञापनों और रैलियों पर धुआँधार सरकारी और कारपोरेट घरानों से मिले काले धन ख़र्च किये जा रहे हैं। हालिया ओपिनियन पोल / चुनावी सर्वेक्षण पर हुए ‘स्टिंग आपरेशन’ के बाद से पूरी बहस इसकी निष्पक्षता, हक़ीक़त,उपयोगिता और ज़रूरत के इर्द-गिर्द होने लगी है। इस बहस में सिर्फ़ विश्लेषक ही नहीं है,पार्टियाँ भी कूद पड़ी हैं। यह सिर्फ़ चुनावी सर्वेक्षण भर का मामला नहीं है,बल्कि इसके पीछे छुपे राजनैतिक मंशा का पड़ताल होना चाहिए । आइए ओपिनियन पोल के ‘होल’ की बानगी देखते हैं !
सर्वे की बानगी एक : भारतीय समाज की जटिलताओं को एक क्रूर सच के रूप में देखा जाना चाहिए। हमारा समाज कई तरह के दबाओं और भय में जीता है। सामंती सामाजिक ढाँचा और पुरूष सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था होने की वजह से बहुत जगहों पर स्वतंत्र,निष्पक्ष और बेबाक़ अभिव्यक्ति,आमतौर पर आपसी संघर्ष में तब्दील हो जाता है। कई बार यह ख़ूनी संघर्ष का रूप भी धारण कर लेता है। यहीं कारण है कि बहुतेरे मामलों में और कई मुद्दों पर लोग खुलकर अपनी राय नहीं देते । इसीलिए अकसर कई मामलों के परिणाम,दिए गये राय के विपरीत निकलते हैं । इस उदाहरण को चुनावी सर्वेंक्षण / ओपिनियन पोल के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता हैं। मान लीजिए आप ऐसे इलाक़े में सर्वे कर रहे हैं,जहाँ दबंग जातियाँ रहती हैं । वहाँ के लोग किसी पार्टी /उम्मीदवार के पक्ष में खुल कर अपनी राय देते हैं, लेकिन उन्हीं के आसपास रहने वाली कमज़ोर जातियों की राय एक दम अलग होगी । संबंधित मुद्दों पर या तो वो गोलमोल जवाब देंगे या जो देंगे,चुनाव में उस पर खरा नहीं उतरेंगे। लेकिन दिये गये प्राथमिक उत्तर को आधार बनाकर सर्वे एजेंसियाँ आँकड़ा पेश करती हैं । जबकि यह हक़ीक़त से कोसों दूर होता है। यहीं कारण है कि सर्वे एजेंसियों के इतर चुनावी नतीजे एक दम चौंकाने वाले आते हैं।
अर्थ यह कि खुलकर राय देना मतलब ख़तरे से ख़ाली नहीं है। सहीं बात बोलकर जातीय /ख़ूनी संघर्ष को आमंत्रित करना भी है। अक्सर चुनाव के ठीक बाद/महीनों तक चुनावी रंजीश की ख़बरें पढ़ने को मिलती हैं। हत्या/ आपसी संघर्ष की ख़बरों पर ग़ौर कीजिए । इसीलिए लोग बोलते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। यहाँ नोट करने लायक बात यह है कि जिस इलाकों में चुनावी सर्वेक्षण किये गये और प्राथमिक राय की बदौलत निकाले गये आँकड़ों के आधार पर ओपिनियन पोल को पब्लिक किया गया। चुनाव पूर्व जिस पार्टी / प्रत्याशी की बढ़त दिखायी गयी,चुनाव बाद उसकी पराजय हुई।

ज़ाहिर है,प्राथमिक राय मतदान के समय बदल गये। इसका मतलब यह हुआ कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण,चुनाव बाद ग़लत साबित हुए । क्योंकि प्राथमिक राय स्वतंत्र,सटीक,निष्पक्ष, और निर्भीक नहीं थे। डर और भय के आधार पर दिए गये थे। यह लक्षण कमोबेश भारत के अधिकतर हिस्से में है। ख़ासतौर पर उत्तर भारत में जहाँ का सामाजिक ढाँचा आज भी स्वर्ण सामंती बना हुआ है और जहाँ सामाजिक जकड़न बेहद संवेदनशील है। ऐसे मामलों में पुलिस मशीनरी भी बहुत निष्पक्ष तरीक़े से काम नहीं करती,इसलिए बहुतेरे लोग झगड़ा मोल नहीं लेना चाहते हैं। इस मामले में शहर और देहात का अलग-अलग लक्षण है। यहाँ ग्रामीण पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर विश्लेषण किया गया है।

सर्वे की बानगी दो : चुनाव पूर्व सर्वेक्षण /ओपिनियन पोल में सिर्फ़ राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ भी लगी हुई हैं। आमतौर पर सर्वे एजेंसियों के पास पर्याप्त मात्रा में मैनपावर नहीं होता। इसलिए वो कम खर्चे में आँकड़ा जुटाने के लिए अप्रशिक्षित युवाओं का सहारा लेती हैं। उत्तरदाता ऐसे लोगों पर भरोसा कम करते हैं,उनके मन में अपनी राय या विचार लीक होने का भय होता है। इसलिए भी लोग खुलकर जवाब नहीं देते हैं। चूँकि ये युवा संबंधित सर्वे एजेंसी द्वारा प्रशिक्षित नहीं होते,इसलिए किसी न किसी पार्टी के प्रति इनका आग्रह होता है। यानी कुल मिलाकर सर्वे पूर्वाग्रह के आसपास घूमता नज़र आता है। मान लीजिए चुनावी सर्वे के काम में कोई स्थानीय या क्षेत्रीय सर्वेकर्ता शामिल है,उसे पता है फलां पार्टी के समर्थक फलां एरिया में अधिक रहते हैं। यदि वहाँ से प्राथमिक आँकड़ा लिया गया तो ज़ाहिर है,सर्वे का रुझान फलां पार्टी के पक्ष में गया। प्राप्त आँकड़ों पर बाज़ीगरी करने वाला बहुत दूर वातानुकूलीत कमरों में बैठा होता है। कई बार उसे ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी नहीं होती,लेकिन निकाले गये परिणाम पूरे चुनाव को प्रभावित करते हैं। यह एक तरह का ख़तरनाक खेल है,जो लम्बे समय से जारी है।

सर्वे की बानगी तीन : जैसे ही ओपिनियन पोल पब्लिक किया जाता है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया इसे हाथों-हाथ लेते हैं। देखते ही देखते यह सर्वे सनसनी में तब्दील हो जाता है। सर्वे में बढ़त पायी पार्टी तो ख़ुश होती है,लेकिन पिछड़ने वाली पार्टियाँ अपने आप को लड़ाई में दिखाने या बने रहने के लिए विज्ञापनों का सहारा लेती हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के पीठ की सवारी कर दर्शकों तक इस खेल को पहुँचाया /दिखाया जाता है। कुल मिलाकर इस खेल में सर्वे एजेंसी को फ़ायदा होता है। उसकी पब्लिसिटी होती है। उसे और काम मिलने लगते हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को धड़ाधड़ विज्ञापन मिलने लगते हैं। चुनावी मौसम में कारपोरेट घरानों को ज़बरदस्त मुनाफ़ा होता है। सर्वे में जिस पार्टी को बढ़त दिखाया गया होता है,वो इसे भजाना शुरू करती है। मतदाताओं को भ्रमित करने या चुनावी हवा बनाने के लिए आँकड़ों का खेल काफ़ी होता है।

सर्वे की बानगी चार : जब हम कहते हैं कि – चुनावी सर्वे धोखा है,जाग जाओ मौक़ा है / ओपिनियन पोल में होल है,इसमें पूँजीपतियों का रोल है । तो यह तर्क हवाहवाई नहीं है। इसके पीछे एक हक़ीक़त है। एक तर्क है । ओपिनियन पोल या चुनावी सर्वेक्षण के ज़रिए राजसत्ता / राष्ट्रीय /प्रादेशिक राजनैतिक पार्टियों और पूँजीपतियों के बीच बने नापाक गठजोड़ के आधार पर यह खेल,खेला जाता है,जिसे भोली-भाली जनता अनभिज्ञ रहती है। जो जागरूक और चेतनाशील हैं,वो आधुनिक कंदराओं में बंद रहते हैं। विशिष्ट सैंपल विधि से चुनावी सर्वेक्षण कर किसी पार्टी के चुनावी जीत की भविष्यवाणी करना । उसे प्रचारित-प्रसारित करना। पूरे चुनावी माहौल को एक ख़ास पार्टी के इर्द-गिर्द ला कर खड़ा कर देना एक तरह से जनता को गुमराह करना भी है। यहीं हो रहा है और बड़े पैमाने पर हो रहा है। दरअसल भारत में चुनावी सर्वे ; ओपिनियन पोल हो या एक्ज़िट पोल,बहुत पारदर्शी और हक़ीक़त के क़रीब नहीं रहे हैं। बीते वर्ष दिल्ली विधान सभा का चुनाव इसकी बानगी भी है और गवाह भी ।

याद कीजिए 2004 के चुनाव में ‘इंडिया शाइनिंग’ को । करोड़ों रूपये शाइनिंग पर ख़र्च हुए,लेकिन निकला क्या ? वहीं ‘ढाक के तीन पात…’ हालाँकि इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं है,लेकिन अधिकतर ओपिनियन पोल किसी ख़ास पार्टी द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से वित्तपोषित होते हैं,जो उसके हित और बढ़त को प्रदर्शित करते हैं। यह काम कोई एक पार्टी नहीं करती है,बल्कि इसमें बहुत सारी पार्टियाँ लिप्त हैं। यह एक तरह का कारोबार है,जो चुनावी सीज़न देखकर शुरू किया जाता है। बहुत सारी पार्टियाँ छद्म रूप से एजेंसियों से सहयोग लेती हैं या बहुत सारी एजेंसियाँ ही कुछ पार्टियों के सहयोगी के रूप में काम करती हैं। क़ानूनी तौर पर इन्हें पकड़ा नहीं जाता या क़ानूनी काग़ज़ों से ये मुस्तैद रहती हैं। यहीं कारण है कि एक ही चुनाव को लक्ष्य करके हुए,अलग-अलग सर्वे,भिन्न-भिन्न परिणाम दिखाते /दर्शाते हैं। एक करोड़ की आबादी में मुठ्ठी भर लोगों का सैंपल ज़ाहिर है,सही,सटीक और वैज्ञानिक उत्तर नहीं मिल पाता। कोई ज़रूरी नहीं है कि सर्वे में जिनका विचार लिया गया है,वो वोट भी दिए हों या जिसके पक्ष में राय दिये हों उसी को वोट भी दिए हों। यह एक तरह का पूर्वानुमान है,जो अक्सर ग़लत साबित होता रहा है। ओपिनियन पोल से चुनावी नतीजों को की भविष्यवाणी करके मतदाताओं को एक हद तक प्रभावित किया जाता है। उन्हें गुमराह किया जाता है और उनपर एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाया जाता है। ख़ासतौर पर वहाँ,जहाँ का चुनावी माहौल साम्प्रदायिक सेंटीमेंट पर लड़ने और जीतने की रणनीति बनायी जाती है। इसलिए ओपिनियन पोल को ‘पेड ओपिनियन पोल’ की संज्ञा देना ग़लत न होगा। हालिया ओपिनियन पोल पर हुए ‘स्टिंग औप्रेशन’ (ऑपरेशन प्राइम मिनिस्टर, न्यूज़ एक्सप्रेस) के बाद भले इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठने लगी हो,लेकिन यह खेल कभी भरोसेमंद नही रहा, हमेशा इसे संदिग्ध नज़र से देखा-परखा गया।

सर्वे की बानगी पाँच : 2014 के लोकसभा चुनाव पर केन्द्रित ताज़ा चुनावी सर्वे में जिस अंदाज में बीजेपी की बढ़त को दिखाया गया है। इससे कांग्रेस भी बेकला गयी है। इससे लगता है कि सर्वे की दुनिया में एक बड़ा खेल,खेला जा रहा है। यहाँ मामला किसी सर्वे एजेंसी तक सीमित नहीं है,एजेंसी के मुँह से कौन क्या बुलवा रहा है,इसपर सोचने और निष्पक्ष विश्लेषण करने की जरूरत है । इस तरह के सर्वे सच साबित नहीं हो रहे हैं,लिहाज़ा इन पर रोक लगनी चाहिए। सर्वे को आधार बनाकर मुख्यधारा का मीडिया ‘सर्वे सनसनी’ फैला रहा है। इस तरह के सर्वे को मीडिया ख़बरों का आधार बना रहा है और बड़े पैमाने पर विज्ञापन का खेल,खेल रहा है। सर्वे आधारित ख़बरें जनता को भ्रमित कर रही हैं। इसके लिए राजनैतिक पार्टियाँ बड़े पैमाने पर मीडिया का सहारा ले रही हैं। यहीं कारण है कि सत्ताधारी पार्टियों से लगायत अन्य पार्टियाँ विज्ञापनों के मद में अकूत धन ख़र्चा कर रही हैं। यह धन कहाँ से आ रहा है और कहाँ जा रहा है। इसका निष्पक्ष और सार्वजनिक हिसाब-किताब नहीं है। चुनाव आयोग को इस पर भी विचार करना चाहिए । क्योंकि यह पूरा खेल एक ख़ास राजनैतिक मंशा के तहत खेला जा रहा है,जिसका भंडाफोड़ होना चाहिए और इसपर प्रतिबंध लगना चाहिए। 

9

Sunday, February 16, 2014

पेंगुइन को एक वाजिब व जिम्मेदाराना फटकार...जरुर पढ़ें...

पेंगुइन तुम इतना डर किस बात से गए?  --अरुंधति रॉय
सुनीता भास्कर shared a link on Facebook on Yesterday (Saturday 15 Feb 2014 को बजे 
अमेरिकी लेखक वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री` को पेंगुइन ने एक अनजान से कट्टर हिंदू संगठन के दबाव में `भारत` के अपने ठिकानों से हटाने का फैसला किया है। मशहूर लेखिका-एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय जिनकी खुद की किताबें भी इस प्रकाशन से ही आई हैं, ने पेंगुइन को यह कड़ा पत्र लिखा है जो Times of India में छपा है।पत्र का हिंदी अनुवाद:
सुनीता भास्कर 
तुम्हारी इस कारगुजारी से हर कोई स्तब्ध है। तुमने एक अनजान हिंदू कट्टरवादी संस्था से अदालत के बाहर समझौता कर लिया है और तुम वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री` को भारत के अपने किताबघरों से हटाकर इसकी लुगदी बनाने पर राजी हो गए हो। कोई शक नहीं कि प्रदर्शनकारी तुम्हारे दफ्तर के बाहर इकट्ठा होकर अपनी निराशा का इजहार करेंगे। 

कृपया हमें यह बताओ कि तुम इतना डर किस बात से गए? तुम भूल गए कि तुम कौन हो? तुम दुनिया के सबसे पुराने और सबसे शानदार प्रकाशकों में से हो। तुम प्रकाशन के व्यवसाय में बदल जाने से पहले और किताबों के मॉस्किटो रेपेलेंट और खुशबुदार साबुन जैसे बाज़ार के दूसरे खाक़ हो जाने वाले उत्पादनों जैसा हो जाने से पहले से (प्रकाशन में) मौज़ूद हो। तुमने इतिहास के कुछ महानतम लेखकों को प्रकाशित किया है। तुम उनके साथ खड़े रहे हो जैसा कि प्रकाशकों को रहना चाहिए। तुम अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे हिंसक और भयावह मुश्किलों के खिलाफ लड़ चुके हो। और अब जबकि न कोई फतवा था, न पाबंदी और न कोई अदालती हुक्म तो तुम न केवल गुफा में जा बैठे, तुमने एक अविश्वसनीय संस्था के साथ समझौते पर दस्तखत करके खुद को दीनतापूर्ण ढंग से नीचा दिखाया है। आखिर क्यों? कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए जरूरी हो सकने वाले सारे संसाधन तुम्हारे पास है। अगर तुम अपनी ज़मीन पर खड़े रह पाते तो तुम्हारे साथ प्रबुद्ध जनता की राय और सारे न सही पर तुम्हारे अधिकांश लेखकों का समर्थन भी होता। तुम्हें हमें बताना चाहिए कि आखिर हुआ क्या। आखिर वह क्या है, जिसने तुम्हें आतंकित किया? तुम्हें अपने लेखकों को कम से कम स्पष्टीकरण देना तो बनता ही है।
चुनाव में अभी भी कुछ महीने बाकी हैं। फासिस्ट् अभी दूर हैं, सिर्फ अभियान में मुब्तिला हैं। हां, ये भी खराब लग रहा है पर फिर भी वे अभी ताकत में नहीं हैं। अभी तक नहीं। और तुमने पहले ही दम तोड़ दिया।

हम इससे क्या समझें? क्या अब हमें सिर्फ हिन्दुत्व समर्थक किताबें लिखनी चाहिए। या `भारत` के किताबघरों से बाहर फेंक दिए जाने (जैसा कि तुम्हारा समझौता कहता है) और लुगदी बना दिए जाने का खतरा उठाएं? शायद पेंगुइन से छपने वाले लेखकों के लिए कुछ एडिटोरियल गाइडलाइन्स होंगी? क्या कोई नीतिगत बयान है?
साफ कहूं, मुझे यकीन नहीं होता, यह हुआ है। हमें बताओ कि यह प्रतिद्वंद्वी पब्लिशिंग हाउस का प्रोपेगंडा भर है। या अप्रैल फूल दिवस का मज़ाक था जो पहले ही लीक हो गया। कृपया, कुछ कहिए। हमें बताइए कि यह सच नहीं है।
अभी तक मैं से पेंगुइन छपने पर बहुत खुश होती थी। लेकिन अब?
तुमने जो किया है, हम सबके दिल पर लगा है।                       -अरुंधति रॉय

-------------------------

ब्लूस्टार को जनरल शाहबेग का "महंगा बदला" बताया इण्डिया टुडे ने