Saturday, September 12, 2020

जानीमानी पत्रिकाओं की बेवक़्त मौत पर भी नहीं रोया यह समाज

सारी उम्र मीडिया की साधना करने वाले अब किस राह पर चलें?
सोशल मीडिया//इंटरनेट: 12 सितंबर 2020: (मीडिया स्क्रीन online)::  
जानीमानी पत्रिकाओं की बेवक़्त मौत हो रही है और मीडिया संस्थानों से पत्रकारों की छंटनी हो रही है। इतना कुछ होने पर भी समाज मूक दर्शक बना हुआ है। इस समाज के पास शराब पीने के लिए बहुत से पैसे हैं लेकिन बौद्धिक सम्पदा को बचाने के लिए कुछ भी नहीं। 
बुरी खबर यह है कि कोरोनावायरस (कोविड-19) के कारण मध्यवर्गीय लोगों के कारोबार ठप्प हो रहे हैं। बहुत से ढाबे, बहुत काम और बहुत से कारोबार बंद हो चुके हैं। इस मार का असर मीडिया पर भी पड़ा है।  ऐसे में जहां पाठकों पर ऑनलाइन पढ़ने का दबाव बना है वहीं एडवर्टाइजिंग रेवेन्यू में कमी भी आई है।
ऐसे में ब्रिटेन प्रसिद्ध अखबार ‘डेली मिरर’ (Daily Mirror) और ‘डेली एक्सप्रेस’ (Daily Express) की प्रकाशक कंपनी ‘रीच’ (Reach) ने 550 एम्प्लॉयीज की छंटनी करने की योजना बनाई जिसकी खबरें जुलाई में बाहर आ गयीं थीं। इतना बड़ा  ब्रांड अगर ऐसा करता है तो यह यकीकन एक दुखद सत्य है। इसके साथ ही यह सुखद तथ्य भी सामने आया है कि डिजिटल मीडिया में लोगों का उत्साह भी तेज़ी से बढ़ रहा है।
इसी सिलसिले में जानीमानी प्रकाशक कंपनी "रीच" (Reach) के चीफ एग्जिक्यूटिव जिम मुलेन (Jim Mullen) ने एक बयान में कहा कि महामारी के दौरान मीडिया क्षेत्र में संरचनात्मक परिवर्तन में तेजी आई है और इससे हमारे डिजिटल उत्पादों को बढ़ावा मिला है। साथ ही यह भी कहा कि विज्ञापन ज़्यादा न मिलने की वजह से  डिजिटल रेवेन्यू नहीं बढ़ा है। रेवन्यू न बढ़ने के कारण आर्थिक संकट की तलवार लटकने लगी है। तलवार गिरी है अब पत्रकार और गैर-पत्रकार  कामगारों पर। 
मीडिया में आई खबरों के मुताबिक इस गंभीर आर्थिक संकट को बहुत बड़ा कारण बताते हुए प्रकाशक कंपनी ने कहा कि कंपनी लगभग 550 कर्मचारियों की छंटनी करेगा, जोकि इसके कर्मचारियों की संख्या का करीब 12 प्रतिशत है। ऐसा करने से कंपनी को 35 मिलियन पाउंड यानी करीब 43 मिलियन डॉलर की सालाना बचत होगी। अब कम्पनी को तो बचत हो जाएगी लेकिन जिनको नौकरी से बाहर किया जाना है उनका क्या बनेगा। शायद ऐसे सवालों का जवाब पूंजीवादी सोच के लोगों के पास होता ही नहीं।
केवल नफा नुकसान की बात सोचने वाले लोग संवेदना से दूर होते चले जाते हैं। ऐसे में अगर कोई पत्रकार आर्थिक तंगी  चल  या वह ख़ुदकुशी कर लेता  है तो पूरी खबर सामने नहीं आती। बस छोटी सी खबर कि एक पत्रकार की मौत हो गई। पूरे का पूरा परिवार उजड़ने वाली इस दुखद घटना को भी कोरोना की वजह से हुई मौत बता दिया जाता है। 
ऐसी नाज़ूक हालत में  "रीच" (Reach) के चीफ एग्जिक्यूटिव जिम मुलेन (Jim Mullen) का ब्यान बहुत ही महत्वपूर्ण भी बन जाता है। इस नुक्सान भरी स्थिति के तकनीकी फायदे गिनवाते हुए उन्होंने कहा कि इस कदम से हमारा एडिटोरियल प्रिंट व डिजिटल की नेशनल व रीजनल टीमों को एक साथ लेकर अधिक केंद्रीयकृत रूप में आगे बढ़ेगा। हमारे न्यूज ब्रैंड्स की मज़बूत एडिटोरियल पहचान को बरकरार रखते हुए इसकी दक्षता में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी और डुप्लीकेशन खत्म होगा। ब्रिटेन में कई रीजनल न्यूजपेपर का प्रकाशन करने वाली इस कंपनी ने कहा कि पुनर्गठन से ग्रुप को करीब 20 मिलियन पाउंड का खर्च आएगा। शायद इसे ही कहा जाता है आपदा की अवसर में बदलना। 
कंपनी ने कहा कि उसके पास अब कम स्पेस होगा और मैनेजमेंट स्ट्रक्चर भी बहुत ही सिम्पल होगा। कंपनी ने इस बात की भी जानकारी दी है कि सर्कुलेशन और ऐडवर्टाइजिंग की कमी के चलते कंपनी का राजस्व 27.5 प्रतिशत घट गया है। निश्चय ही यह बहुत बड़ी गिरावट है।
लेकिन सत्य यह भी कि यह है इस नाज़ुक दौर में इतनी बढ़ी कम्पनी की कारोबारी रणनीति। साथ ही उन्होंने बहुत ही ईमानदारी से अपने फायदे भी गिनवाए हैं। राजस्व में आई कमी और पुनर्गठन पर आने वाले खर्चे की बात भी स्पष्ट हुई है लेकिन बेरोज़गार होने वालों पर क्या असर होगा इसका कोई ज़िक्र तक नहीं है। शायद पूंजवादी सिस्टम में उनका कोई अर्थ नहीं है। यही सोच अधिकतर लोगों को साम्यवाद की तरफ ले जाती है।
अब देखना है कि पूरा समाज इसके लिया क्या करता है? अफ़सोस है कि न जाने कितनी कितनी शराब पी जाने वाले समाज ने मीडिया के कम हो रहे राजस्व को पूरा करने की कोई औपचारिक पेशकश तक भी नहीं की। इस पूरे समाज ने बेरोज़गार हुए पत्रकार और गैरपत्रकार मीडिया कर्मियों के घरों की चिंता भी नहीं की।  ज़ाहिर है कि अपने आप को पढ़ा लिखा और सांस्कृतिक समाज कहलाने वाला यह पूरा सिस्टम मीडिया, लेखन, कविता, कला या बौद्धिक सम्पदा से भरे लोगों के रहने लायक है ही नहीं। यह समाज अभी भी बेहद पिछड़ा हुआ और स्वार्थी है। शायद यहाँ वह सुबह कभी नहीं आएगी जिसके सपने हमें साहिर लुधियानवी साहिब ने दिखाए।
अफ़सोस कि इस समाज को नंदन और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं बंद होने पर कोई मलाल नहीं हुआ। यह समाज की जीवन धारा से कम तो न थीं। गौरतलब है कि एचटी मीडिया द्वारा जहां एक ओर संस्करणों से पत्रकारों की विदाई की जा रही है, वहीं कंपनी ने प्रसिद्ध और लोकप्रिय नंदन और कादम्बिनी पत्रिका का प्रकाशन भी पूरी तरह से बंद करने का फैसला सुना दिया है। उल्लेखनीय है कि साहित्यिक पत्रिका कादम्बिनी 1960 से प्रकाशित हो रही थी वहीं बाल पत्रिका नंदन 1964 से।  दोनों पत्रिकाएं बहुत बड़े पैमाने पर पढ़ीं जाती थीं। इनकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत ऊंचा था। अंग्रेजी की रीडर डाइजेस्ट की तरह हिंदी पत्रिका को भी हाथ में लेकर चलने से साख बढ़ती है इस बात को फैशन बनाने में इन पत्रिकाओं का भी बहुत बड़ा योगदान रहा। अफ़सोस कि हमारा खोखला समाज इनकी बेवक़्त मौत पर मूकदर्शक ही बना रहा। बोले भी तो बस वही थोड़े से लोग जो किसी न किसी तरह इन पत्रिकाओं से जज़्बाती तौर पर जुड़े हुए थे। समाज की यह चुप्पी इस समाज में बढ़ती जा रही गिरावट का इशारा भी है। न जाने अभी और क्या क्या देखना बाकी है। --मीडिया लिंक रविंद्र 

Friday, September 11, 2020

दूरदर्शन के 58 साल//ऐसा अतीत जिसे भूलना आसान नहीं

 विशेष सेवा और सुविधाएँ 15-September, 2017 19:07 IST
 दूरदर्शन का आज भी कोई सानी नहीं है 
 विशेष लेख                                                                                  *प्रदीप सरदाना 
टेलीविजन का आविष्कार यूँ तो जॉन एल बिलियर्ड ने 1920 के दौर में ही कर दिया था।  लेकिन भारत में यह टीवी तब पहुंचा जब 15 सितम्बर 1959 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने दिल्ली में एक प्रसारण सेवा दूरदर्शन का उद्घाटन किया। हालांकि तब शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह दूरदर्शन, यह टीवी आगे चलकर जन जन की जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाएगा। आज यह टीवी रोटी कपड़ा और मकान के बाद लोगों की चौथी ऐसी जरुरत बन गया है कि जिसके बिना जिंदगी मुश्किल और सूनी सी लगती है।
लेखक प्रदीप सरदाना 
अब वही दूरदर्शन अपने जीवन के 58 बरस पूरे कर चुका है। इतने बरसों में दूरदर्शन का,टीवी का अपने देश में इतना विकास हुआ है कि इसे देखना जीवन की एक आदत ही नहीं जरुरत बन गया है। हालांकि शुरूआती बरसों में दूरदर्शन का विकास बहुत धीमा था. शुरूआती बरसों में इस पर आधे घंटे का नाम मात्र प्रसारण होता था। पहले इसे स्कूली शिक्षा के लिए स्कूल टेलीविजन के रूप में शुरू किया गया।  लेकिन इसका 500 वाट का ट्रांसमीटर दिल्ली के मात्र 25 किमी क्षेत्र में ही प्रसारण करने में सक्षम था।  तब सरकार ने दिल्ली के निम्न और माध्यम वर्गीय क्षेत्र के 21 सामुदायिक केन्द्रों पर टीवी सेट रखवाकर इसके प्रसारण की विशेष व्यवस्था करवाई थी। ऐसे में तब दूरदर्शन से कोई बड़ी उम्मीद भला कैसे रखी जा सकती थी। हालाँकि जब 15 अगस्त 1965 को दूरदर्शन पर समाचारों का एक घंटे का नियमित हिंदी बुलेटिन आरम्भ हुआ तब दूरदर्शन में लोगों की कुछ दिलचस्पी बढती दिखाई दी। इसके बाद दूरदर्शन पर 26 जनवरी 1967 को किसानों को खेती बाड़ी आदि की ख़ास जानकारी देने के लिए दूरदर्शन पर ‘कृषि दर्शन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया गया। इसी दौरान दूरदर्शन पर नाटकों का प्रसारण भी शुरू किया गया। लेकिन दूरदर्शन की लोकप्रियता में बढ़ोतरी तब हुई जब इसमें शिक्षा और सूचना के बाद मनोरंजन भी जुड़ा।
असल में जब 2 अक्टूबर 1972 को दिल्ली के बाद मुंबई केंद्र शुरू हुआ तो मायानगरी के कारण इसका फिल्मों से जुड़ना स्वाभाविक था। मनोरंजन के नाम पर दूरदर्शन पर 70 के दशक की शुरुआत में ही एक एक करके तीन शुरुआत हुईं। एक हर बुधवार आधे घंटे का फ़िल्मी गीतों का कार्यक्रम चित्रहार शुरू किया गया। दूसरा हर रविवार शाम एक हिंदी फीचर फिल्म का प्रसारण शुरू हुआ। साथ ही एक कार्यक्रम ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’ भी शुरू किया गया। इस कार्यक्रम में फिल्म अभिनेत्री तब्बसुम फिल्म कलाकारों के इंटरव्यू लेकर उनकी जिंदगी की फ़िल्मी बातों के साथ व्यक्तिगत बातें भी दर्शकों के सामने लाती थीं। तब देश में फिल्मों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ चुकी थी। लेकिन सभी के लिए सिनेमा घर जाकर सिनेमा देखना संभव नहीं था,ऐसे में जब यह सब दूरदर्शन पर आया तो दर्शकों की मुराद घर बैठे पूरी होने लगी। यूँ यह वह दौर था जब 1970 में देश भर में मात्र 24838 टीवी सेट थे। जिनमें सामुदायिक केन्द्रों में सरकारी टीवी सेट के साथ कुछ अधिक संपन्न व्यक्तियों के घरों में ही टीवी होता था। ऐसे में तब अधिकांश मध्यम वर्ग के लोग भी अपने किसी संपन्न पडोसी या रिश्तेदार के यहाँ जाकर बुधवार का चित्रहार और रविवार की फिल्म देखने का प्रयास करते थे।
                          सीरियल युग से आई टीवी में क्रांति 
समाचार, चित्रहार और फिल्मों के बाद दूरदर्शन में दर्शकों की दिलचस्पी तब बढ़ी जब दूरदर्शन पर सीरियल युग का आरम्भ हुआ। यूँ तो दूरदर्शन पर कभी कभार सीरियल पहले से ही आ रहे थे।  लेकिन सीरियल के इस नए मनोरंजन ने क्रांति का रूप तब लिया जब 7 जुलाई 1984 को ‘हम लोग’ का प्रसारण शुरू हुआ।  निर्मात्री शोभा डॉक्टर, निर्देशक पी कुमार वासुदेव और लेखक मनोहर श्याम जोशी के ‘हम लोग’ ने दर्शको पर अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि हमारे सामाजिक परिवेश, दिनचर्या और आदतों तक में यह बड़ा परिवर्तन साबित हुआ, जिससे हम सब की दुनिया ही बदल गयी। ‘हम लोग’ के कुल 156 एपिसोड प्रसारित हुए लेकिन इसका आलम यह था कि जब इसका प्रसारण होता था तब कोई मेहमान भी किसी के घर आ जाता था था तो घर वाले उसकी परवाह न कर अपने इस सीरियल में ही मस्त रहते थे। लोग शादी समारोह में जाने में देर कर देते थे लेकिन ‘हम लोग’ देखना नहीं छोड़ते थे।   ‘हम लोग’ और दूरदर्शन की लोकप्रियता का प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि सन 1970 में देश में जहाँ टीवी सेट की संख्या 24838 थी ‘हम लोग’ के बाद 1984 में वह संख्या 36,32,328 हो गयी।
‘हम लोग’ का दर्शकों पर जादू देख दूरदर्शन ने 1985 में ही हर रोज शाम का दो घंटे का समय विभिन्न सीरियल के नाम कर दिया। जिसमें आधे आधे घंटे के 4 साप्ताहिक सीरियल आते थे। सभी सीरियल को 13 हफ्ते यानी तीन महीने का समय दिया जाता था। उसके बाद वह जगह किसी नए सीरियल को दे डी जाती थी। सिर्फ किसी उस सीरियल को कभी कभार 13 और हफ़्तों का विस्तार दे दिया जाता था, जो काफी लोकप्रिय होता था या फिर जिसकी कहानियां कुछ लम्बी होती थीं। इस दौरान दूरदर्शन पर बहुत से ऐसे सीरियल आये जिन्होंने दर्शकों पर अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी। लेकिन दूरदर्शन की इस लोकप्रियता को तब और भी पंख लग गए जब दूरदर्शन ने 1987 में ‘रामायण’ महाकाव्य पर सीरियल शुरू किया। फिल्म निर्माता रामानंद सागर द्वारा निर्मित निर्देशित ‘रामायण’ सीरियल ने टीवी की लोकप्रयता को एक दम एक नया शिखर प्रदान कर दिया। जब रविवार सुबह ‘रामायण’ का प्रसारण होता था तो सभी सुबह सवेरे  उठकर, नहा धोकर टीवी के सामने ‘रामायण’ देखने के लिए ऐसे बैठते थे जैसे मानो वे मंदिर में बैठे हों। ‘रामायण’ के उस प्रसारण के समय सभी घरों में टीवी के सामने होते थे तो घरों के बाहर सुनसान और कर्फ्यू जैसे नज़ारे दिखते थे। बाद में ‘रामायण’ की लोकप्रियता से प्रभावित होकर दूरदर्शन ने अगले बरस एक और महाकाव्य ‘महाभारत’ का प्रसारण शुरू कर दिया। फिल्मकार बीआर चोपड़ा द्वारा बनाए गए इस सीरियल ने भी जबरदस्त लोकप्रियता पायी।
दूरदर्शन के पुराने लोकप्रिय सीरियल को याद करें तो हम लोग, रामायण और महाभारत के अतिरिक्त ऐसे बहुत से सीरियल रहे जिन्होंने सफलता,लोकप्रियता का नया इतिहास लिखा। जैसे यह जो है जिंदगी, कथा सागर, बुनियाद, वागले की दुनिया,खानदान, मालगुडी डेज़, करमचंद, एक कहानी,श्रीकांत, नुक्कड़, कक्का जी कहिन, भारत एक खोज, तमस, मिर्ज़ा ग़ालिब,निर्मला, कर्मभूमि, कहाँ गए वो लोग, द सोर्ड ऑफ़ टीपू सुलतान, उड़ान, रजनी, चुनौती, शांति, लाइफ लाइन ,नींव, बहादुर शाह ज़फर, जूनून, स्वाभिमान, गुल गुलशन गुलफाम, नुपूर, झरोखा, जबान संभाल के, देख भाई देख,तलाश और झांसी की रानी आदि।
                        एक ही चैनल ने बरसों तक बांधे रखा
यह निश्चय ही सुखद और दिलचस्प है कि आज चाहे देश में कुल मिलाकर 800 से अधिक उपग्रह-निजी चैनल्स का प्रसारण हो रहा है। जिसमें मनोरंजन के साथ समाचार चैनल्स भी हैं तो संगीत, सिनेमा, खेल स्वास्थ्य, खान पान, फैशन, धार्मिक, आध्यात्मिक और बच्चों के चैनलस भी हैं तो विभिन्न भाषाओँ और प्रदेशों के भी। लेकिन एक समय था जब अकेले दूरदर्शन ने यह सारा ज़िम्मा उठाया हुआ था। दूरदर्शन का एक ही चैनल समाचारों से लेकर मनोरंजन और शिक्षा तक की सभी कुछ दिखाता था। जिसमें किसानों के लिए भी था बच्चों और छात्रों के लिए भी, नाटक और फ़िल्में भी थीं तो स्वास्थ्य और खान पान की जानकारी के साथ कवि सामेलन भी दिखाये जाते थे और नाटक भी। मौसम का हाल होता था और संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम भी। क्रिकेट, फुटबाल सहित विभिन्न मैच का प्रसारण भी होता था तो स्वंत्रता और गणतंत्र दिवस का सीधा प्रसारण भी। धरती ही नहीं अन्तरिक्ष तक से भी सीधा प्रसारण दिखाया जाता था जब प्रधानमन्त्री के यह पूछने पर कि ऊपर से भारत कैसा दिखता है, तब भारतीय अन्तरिक्ष यात्री राकेश शर्मा के ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दुस्तान हमारा, कहने पर पूरा देश गर्व से रोमांचित हो गया था। बड़ी बात यह है कि दूरदर्शन के इस अकेले चैनल ने सही मायने में सन 1990 के बाद के कुछ बरसों तक भी अपना एक छत्र राज बनाए रखा। यूँ कहने को दूरदर्शन का एक दूसरा चैनल 17 सितम्बर 1984 को शुरू हो गया था। लेकिन सीमित अवधि और सीमित कार्यक्रमों वाला यह चैनल दर्शकों पर अपना प्रभाव नहीं जमा पाया जिसे देखते हुए इसे कुछ समय बाद बंद कर देना पड़ा। बाद में 2 अक्टूबर 1992 में जहाँ जी टीवी से उपग्रह निजी हिंदी मनोरंजन चैनल की देश में पहली बड़ी शुरुआत हुई वहां 1993 में दूरदर्शन ने मेट्रो चैनल की भी शुरुआत की। तब निजी चैनल्स के साथ मेट्रो चैनल को भी बड़ी सफलता मिली और दर्शकों को नए किस्म के नए रंग के सीरियल आदि काफी पसंद आये। लेकिन उसके बाद देश में सभी किस्म के चैनल्स की बाढ़ सी आती चली गयी। इससे दूरदर्शन को कई किस्म की चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। पहली चुनौती तो यही रही कि एक पब्लिक ब्रॉडकास्टर होने के नाते दूरदर्शन के सामजिक जिम्मेदारियां हैं। दूरदर्शन मनोरंजन के नाम पर निजी चैनल्स की तरह दर्शकों को कुछ भी नहीं परोस सकता।
दूरदर्शन की महानिदेशक सुप्रिया साहू भी कहती हैं- यह ठीक है कि दूरदर्शन एक पब्लिक ब्रोडकास्टर है लेकिन मैं समझती हूँ कि यह सब  होते हुए भी दूरदर्शन अपनी भूमिका अच्छे से निर्वाह कर रहा है। दूरदर्शन का आज भी दर्शकों में अपना अलग प्रभाव है, दूरदर्शन अपने दर्शकों को साफ सुथरा और उद्देश्य पूर्ण मनोरंजन तो प्रदान कर ही रहा है लेकिन दर्शकों को जागरूक करने की भूमिका में दूरदर्शन सभी से आगे है। बड़ी बात यह है देश में कुछ निजी चैनल्स मनोरंजन और समाचारों के नाम पर जो सनसनीखेज वातावरण तैयार करते हैं दूरदर्शन हमेशा इससे दूर रहकर स्वस्थ और सही प्रसारण को महत्व देता है। हाँ  दूरदर्शन के सामने जो चुनौतियाँ हैं उनसे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दूरदर्शन के इस 58 वें स्थापना दिवस पर मैं सभी को यह विश्वास दिलाती हूँ कि आज दूरदर्शन अपनी सभी किस्म की चुनौतियों से निबटने के लिए स्वयं सक्षम है। आज हमारे पास विश्व स्तरीय तकनीक है हम दुनियाभर में जाकर अपने एक से एक कार्यक्रम बनाते हैं और दिखाते हैं.निजी चैनल जिन मुद्दों पर उदासीन रहते हैं वहां हम उस सब पर बहुत कुछ दिखाते हैं, जैसे किसानों पर, स्वच्छता पर, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ पर। कला पर संस्कृति पर। आज दूरदर्शन के देश में कुल 23 चैनल्स हैं जिनमें 16 सेटेलाइट्स चैनल हैं और 7 नेशनल चैनल्स। जिससे दूरदर्शन आज महानगरों से लेकर छोटे नगरों,कस्बों और गाँवों तक पूरी तरह जुड़ा हुआ है। हमारे कार्यक्रम तकनीक और कंटेंट दोनों में उत्तम हैं। इस सबके बाद भी यदि कहीं कोई कमी मिलती है तो हम उसे दूर करेंगे। समय के साथ अपने कार्यक्रमों की निर्माण गुणवत्ता में जो आधुनिकीकरण करना पड़ेगा, उसे भी हम करेंगे। कुल मिलाकर उद्देश्य यह है कि हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से भी पीछे नहीं हटेंगे और दर्शको का दूरदर्शन में भरोसा भी कायम रखेंगे।”
दूरदर्शन में दर्शकों का भरोसा कायम रहे इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। मेरा तो दूरदर्शन से अपना भी व्यक्तिगत लगाव है। पहला तो इसलिए ही कि मैं भी देश के लाखों करोड़ों लोगों की तरह  बचपन से दूरदर्शन को देखते हुए बड़ा हुआ हूँ। लेकिन इसके साथ दूरदर्शन से मेरा विशेष और अलग लगाव इसलिए भी है कि मैंने ही देश में सबसे पहले दूरदर्शन पर नियमित पत्रकारिता शुरू की। सन 1980 के दशक के शुरुआत में ही मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि दूरदर्शन जल्द ही घर का एक सदस्य बन जाएगा। जब दूरदर्शन पर ‘हम लोग’ से भी पहले ‘दादी माँ जागी’ नाम से देश का पहला नेटवर्क सीरियल शुरू हुआ तो मैंने उसकी चर्चा देश के विभिन्न हिस्सों में दूर दराज तक होते देखी। मुझे लगा कि एक सीरियल एक ही समय में पूरे देश में यदि देखा जाएगा तो यह टीवी मीडिया क्रांति ला देगा। तब हम कोई फिल्म देखते थे तो वह अलग अलग समय में अलग अलग दिनों में देखते थे मगर रात 8 या 9 बजे राष्ट्रीय प्रसारण वाला सीरियल एक साथ एक ही समय में पूरा देश देख लेता था। उसके बाद उसमें दिखाए दृश्य अगले दिन सभी की चर्चा का विषय बने होते थे। यह ठीक है कि अब अलग अलग सैंकड़ों चैनल्स आने से स्थितियों में बदलाव हुआ है लेकिन दूरदर्शन ने देश को एक साथ जोड़ने, लोगों को जागरूक करने, शिक्षित करने और उन्हें मनोरंजन प्रदान करने का जो कार्य किया है उसका आज भी कोई सानी नहीं है।
****
*लेखक पिछले लगभग 40  वर्षों से राजनीति, संचार,  स्वास्थ्य, परिवहन, पर्यटन, जल, शिक्षा आदि के साथ सिनेमा और टीवी जैसे विषयों पर भी देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित समाचार पत्र पत्रिकाओं में नियमित लिख रहे हैं। लेखक टीवी पर नियमित लिखने वाले देश के पहले पत्रकार भी है। 
****