Saturday, September 12, 2020

जानीमानी पत्रिकाओं की बेवक़्त मौत पर भी नहीं रोया यह समाज

सारी उम्र मीडिया की साधना करने वाले अब किस राह पर चलें?
सोशल मीडिया//इंटरनेट: 12 सितंबर 2020: (मीडिया स्क्रीन online)::  
जानीमानी पत्रिकाओं की बेवक़्त मौत हो रही है और मीडिया संस्थानों से पत्रकारों की छंटनी हो रही है। इतना कुछ होने पर भी समाज मूक दर्शक बना हुआ है। इस समाज के पास शराब पीने के लिए बहुत से पैसे हैं लेकिन बौद्धिक सम्पदा को बचाने के लिए कुछ भी नहीं। 
बुरी खबर यह है कि कोरोनावायरस (कोविड-19) के कारण मध्यवर्गीय लोगों के कारोबार ठप्प हो रहे हैं। बहुत से ढाबे, बहुत काम और बहुत से कारोबार बंद हो चुके हैं। इस मार का असर मीडिया पर भी पड़ा है।  ऐसे में जहां पाठकों पर ऑनलाइन पढ़ने का दबाव बना है वहीं एडवर्टाइजिंग रेवेन्यू में कमी भी आई है।
ऐसे में ब्रिटेन प्रसिद्ध अखबार ‘डेली मिरर’ (Daily Mirror) और ‘डेली एक्सप्रेस’ (Daily Express) की प्रकाशक कंपनी ‘रीच’ (Reach) ने 550 एम्प्लॉयीज की छंटनी करने की योजना बनाई जिसकी खबरें जुलाई में बाहर आ गयीं थीं। इतना बड़ा  ब्रांड अगर ऐसा करता है तो यह यकीकन एक दुखद सत्य है। इसके साथ ही यह सुखद तथ्य भी सामने आया है कि डिजिटल मीडिया में लोगों का उत्साह भी तेज़ी से बढ़ रहा है।
इसी सिलसिले में जानीमानी प्रकाशक कंपनी "रीच" (Reach) के चीफ एग्जिक्यूटिव जिम मुलेन (Jim Mullen) ने एक बयान में कहा कि महामारी के दौरान मीडिया क्षेत्र में संरचनात्मक परिवर्तन में तेजी आई है और इससे हमारे डिजिटल उत्पादों को बढ़ावा मिला है। साथ ही यह भी कहा कि विज्ञापन ज़्यादा न मिलने की वजह से  डिजिटल रेवेन्यू नहीं बढ़ा है। रेवन्यू न बढ़ने के कारण आर्थिक संकट की तलवार लटकने लगी है। तलवार गिरी है अब पत्रकार और गैर-पत्रकार  कामगारों पर। 
मीडिया में आई खबरों के मुताबिक इस गंभीर आर्थिक संकट को बहुत बड़ा कारण बताते हुए प्रकाशक कंपनी ने कहा कि कंपनी लगभग 550 कर्मचारियों की छंटनी करेगा, जोकि इसके कर्मचारियों की संख्या का करीब 12 प्रतिशत है। ऐसा करने से कंपनी को 35 मिलियन पाउंड यानी करीब 43 मिलियन डॉलर की सालाना बचत होगी। अब कम्पनी को तो बचत हो जाएगी लेकिन जिनको नौकरी से बाहर किया जाना है उनका क्या बनेगा। शायद ऐसे सवालों का जवाब पूंजीवादी सोच के लोगों के पास होता ही नहीं।
केवल नफा नुकसान की बात सोचने वाले लोग संवेदना से दूर होते चले जाते हैं। ऐसे में अगर कोई पत्रकार आर्थिक तंगी  चल  या वह ख़ुदकुशी कर लेता  है तो पूरी खबर सामने नहीं आती। बस छोटी सी खबर कि एक पत्रकार की मौत हो गई। पूरे का पूरा परिवार उजड़ने वाली इस दुखद घटना को भी कोरोना की वजह से हुई मौत बता दिया जाता है। 
ऐसी नाज़ूक हालत में  "रीच" (Reach) के चीफ एग्जिक्यूटिव जिम मुलेन (Jim Mullen) का ब्यान बहुत ही महत्वपूर्ण भी बन जाता है। इस नुक्सान भरी स्थिति के तकनीकी फायदे गिनवाते हुए उन्होंने कहा कि इस कदम से हमारा एडिटोरियल प्रिंट व डिजिटल की नेशनल व रीजनल टीमों को एक साथ लेकर अधिक केंद्रीयकृत रूप में आगे बढ़ेगा। हमारे न्यूज ब्रैंड्स की मज़बूत एडिटोरियल पहचान को बरकरार रखते हुए इसकी दक्षता में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी और डुप्लीकेशन खत्म होगा। ब्रिटेन में कई रीजनल न्यूजपेपर का प्रकाशन करने वाली इस कंपनी ने कहा कि पुनर्गठन से ग्रुप को करीब 20 मिलियन पाउंड का खर्च आएगा। शायद इसे ही कहा जाता है आपदा की अवसर में बदलना। 
कंपनी ने कहा कि उसके पास अब कम स्पेस होगा और मैनेजमेंट स्ट्रक्चर भी बहुत ही सिम्पल होगा। कंपनी ने इस बात की भी जानकारी दी है कि सर्कुलेशन और ऐडवर्टाइजिंग की कमी के चलते कंपनी का राजस्व 27.5 प्रतिशत घट गया है। निश्चय ही यह बहुत बड़ी गिरावट है।
लेकिन सत्य यह भी कि यह है इस नाज़ुक दौर में इतनी बढ़ी कम्पनी की कारोबारी रणनीति। साथ ही उन्होंने बहुत ही ईमानदारी से अपने फायदे भी गिनवाए हैं। राजस्व में आई कमी और पुनर्गठन पर आने वाले खर्चे की बात भी स्पष्ट हुई है लेकिन बेरोज़गार होने वालों पर क्या असर होगा इसका कोई ज़िक्र तक नहीं है। शायद पूंजवादी सिस्टम में उनका कोई अर्थ नहीं है। यही सोच अधिकतर लोगों को साम्यवाद की तरफ ले जाती है।
अब देखना है कि पूरा समाज इसके लिया क्या करता है? अफ़सोस है कि न जाने कितनी कितनी शराब पी जाने वाले समाज ने मीडिया के कम हो रहे राजस्व को पूरा करने की कोई औपचारिक पेशकश तक भी नहीं की। इस पूरे समाज ने बेरोज़गार हुए पत्रकार और गैरपत्रकार मीडिया कर्मियों के घरों की चिंता भी नहीं की।  ज़ाहिर है कि अपने आप को पढ़ा लिखा और सांस्कृतिक समाज कहलाने वाला यह पूरा सिस्टम मीडिया, लेखन, कविता, कला या बौद्धिक सम्पदा से भरे लोगों के रहने लायक है ही नहीं। यह समाज अभी भी बेहद पिछड़ा हुआ और स्वार्थी है। शायद यहाँ वह सुबह कभी नहीं आएगी जिसके सपने हमें साहिर लुधियानवी साहिब ने दिखाए।
अफ़सोस कि इस समाज को नंदन और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं बंद होने पर कोई मलाल नहीं हुआ। यह समाज की जीवन धारा से कम तो न थीं। गौरतलब है कि एचटी मीडिया द्वारा जहां एक ओर संस्करणों से पत्रकारों की विदाई की जा रही है, वहीं कंपनी ने प्रसिद्ध और लोकप्रिय नंदन और कादम्बिनी पत्रिका का प्रकाशन भी पूरी तरह से बंद करने का फैसला सुना दिया है। उल्लेखनीय है कि साहित्यिक पत्रिका कादम्बिनी 1960 से प्रकाशित हो रही थी वहीं बाल पत्रिका नंदन 1964 से।  दोनों पत्रिकाएं बहुत बड़े पैमाने पर पढ़ीं जाती थीं। इनकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत ऊंचा था। अंग्रेजी की रीडर डाइजेस्ट की तरह हिंदी पत्रिका को भी हाथ में लेकर चलने से साख बढ़ती है इस बात को फैशन बनाने में इन पत्रिकाओं का भी बहुत बड़ा योगदान रहा। अफ़सोस कि हमारा खोखला समाज इनकी बेवक़्त मौत पर मूकदर्शक ही बना रहा। बोले भी तो बस वही थोड़े से लोग जो किसी न किसी तरह इन पत्रिकाओं से जज़्बाती तौर पर जुड़े हुए थे। समाज की यह चुप्पी इस समाज में बढ़ती जा रही गिरावट का इशारा भी है। न जाने अभी और क्या क्या देखना बाकी है। --मीडिया लिंक रविंद्र 

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