Tuesday, October 17, 2017

सेंट्रल बैंक के कर्मचारियों का रोष प्रदर्शन 17 को लुधियाना में

हो सकता है हड़ताल का भी ऐलान 
लुधियाना: 16 अक्टूबर 2017: (मीडिया स्क्रीन ब्यूरो)::
दूर से देखें तो यही लगता है कि बैंकों के कर्मचारी अपनी नौकरी में ऐश करते हैं। अगर आप इस ऐश की वास्तविकता देखना चाहते हैं तो कभी वक़्त निकाल बैंक कर्मचारियों का कामकाज ज़रा नज़दीक से देखिएगा। कब किसको शाम के सात बजते हैं और कब कोई लंच भी नहीं  कर पाता इसका पता नज़दीक होने पर ही चलता है। बहुत से मुलाज़िम इस नौकरी के लिए अक्सर दुसरे स्टेशनों से आते हैं तेज़ गाड़ियों पर भी करीब ढाई तीन घंटों का सफर तय करके। उनकी मांगें एक अर्से से लटक रही हैं।  निजीकरण की तरफ धकेले जा रहे सिस्टम में उनकी आवाज़ भी नहीं सुनी जा रही। करीब 200 बैंक कर्मचारी मौत का शिकार हो चुके हैं। उनके परिवारों में से अभी तक किसी को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी नहीं मिली। इस तरह की कई मांगें करीब दो वर्षों से भी अधिक समय से लटक रही हैं। इन सभी मांगों को लेकर सेंट्रल बैंक आफ इंडिया के कर्मचारी 17 अक्टूबर 2017 मंगलवार को सांय 5:30 बजे एक रोष प्रदर्शन करेंगे।  यह प्रदर्शन पार्क प्लाजा के साथ ही स्थित सेंट्रल बैंक आफ इंडिया के सामने होगा। इस संबंध में कोई और जानकारी आवश्यक हो तो श्री एम. एस. भाटिया से ली जा सकती है जो कि सेंट्रल बैंक आफ इंडिया इम्प्लाईज़ यूनियन के रीजनल सचिव हैं।  
उनका मोबाईल नंबर है: 9988491002 

Wednesday, September 6, 2017

वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की वहशियाना हत्या-कई गोलियां चलायीं

जन विरोधी तत्वों के लिए गौरी लंकेश एक चुनौती थी
बेंगलुरु: 5 सितम्बर 2017: (मीडिया स्क्रीन ब्यूरो)::   
बेंगलुरु से बुरी खबर आई है।  साथ ही खतरनाक भी। देश में बढ़ रहे असुरक्षा और असहनशीलता के माहौल को दर्शाती हुई खबर। वहशत और दहशत की हद हो गयी है।  अधिकारों के शोर में महिला कलमों पर भी हमले तेज़ कर दिए गए हैं। वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की आज बेंगलुरु स्थित उनके घर के बाहर गोली मार कर हत्या कर दी गई। मीडिया के तकरीबन सभी प्रबुद्ध वर्गों ने इस जघन्य हत्या की निंदा की है। इसके साथ ही चेतावनी भी दी है कि बुलंद आवाज़ों को खामोश करने के इस अभियान का हम सब मुँह तोड़ जवाब देंगें। हत्यारे मोटरसाइकल पर सवार थे और उनके इस अकस्मात हुए हमले में कम से कम तीन गोलिया गौरी लंकेश के सीने में लगीं। विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया है। बुधवार 6 सितम्बर को शाम 6 बजे मुम्बई में एक शौक सभा का आयोजन भी रखा गया है। देश भर में गम और गुस्से की लहर है। 
गौरतलब है कि पत्रकार गौरी लंकेश का घर राजाराजेश्वरी नगर में था। उनके शरीर पर गोलियों के कई निशान हैं, जिससे साफ़ जाहिर होता है कि उनकी हत्या के लिए उन पर कई बार गोलियां चलायीं गयीं। गौरी लंकेश को हिंदुत्ववादी राजनीति का घोर आलोचक माना जाता था। डीसीपी वेस्ट एनएन अनुचेथ ने इस हत्या की पुष्टि करते हुए कहा कि आज शाम गौरी के घर पर हमला हुआ और उनपर गोलियां चलाई गयी जिसमें उनकी मौत हो गई। उनका शव घर के वरांडा में पाया गया।  इस बारे में ज्यादा जानकारी का इंतजार है। उनकी साप्ताहिक कन्नड़ पत्रिका जन विरोधी तत्वों की आँखों में बुरी तरह से अखर रही थी। 
पीपुल्स मीडिया लिंक और जनवादी मीडिया मंच ने इस बर्बर और वहशियाना हत्या की सख्त निंदा करते हुए सभी कलमकारों को इस मुद्दे पर एकजुट होने की अपील की है। इन दोनों संगठनों ने कहा है कि इस तरह बुलंद और जनवादी आवाज़ों को खामोश करने का अभियान चलाने वाले जल्द ही नाकाम होंगें।  अपने साथियों की आवाज़ बनेगें हुए बताएंगे कि हम सब रक्तबीज हैं। जितना मिटाओगे उतना ही बढ़ेंगे। 
इसी बीच पंजाबी कलमकारा पाल कौर, शशि समुंद्रा, बलबीर संघेड़ा, धीदो गिल, जगविंदर जोधा, कुलविंदर कौर रूहानी, मनीषा सूद, कर्मजीत सिंह, रमन विर्क, दर्शन सिंह ढिल्लों, कमलजीत दोसांझ नत्त, राजविंदर कौर बाजवा, इंद्रजीत सिंह पुरेवाल, दमनजीत सिन घ और के अन्यों ने इस की सख्त निंदा करते हुए इस ट्रेंड पर गहरी चिंता व्यक्त की है। 
 मीडिया को दबाने, खरीदने या मिटाने पर उतारू जन विरोधी तत्वों के लिए गौरी लंकेश एक चुनौती थी। एक मज़बूत चुनौती। गौरी लंकेश का काम करने का तरीका पूरी तरह जन शक्ति पर केंद्रित और आधारित था। कन्नड़ भाषा की साप्ताहिक गौरी लंकेश अपनी इस पत्रिका की संपादक थीं। उसमें होते खुलासों से उस विचारधारा के विरोधी चिंतित भी थे और बौखलाए हुए भी थे। उन्हें निर्भीक और बेबाक पत्रकार माना जाता था। गौरी लंकेश कर्नाटक की सिविल सोसायटी की चर्चित और लोकप्रिय चेहरा थीं। गौरी की पत्रिका के हर अंक की इंतज़ार होती थी। गौरी कन्नड़ पत्रकारिता में एक नए मानदंड स्थापित करने वाले पी. लंकेश की बड़ी बेटी थीं। पिता के गुणों को समाहित करके वह अपनी खूबियों को भी सहेज रही थी। शायद उसका बहुत बड़ा कसूर था की वह वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थीं और ऊपर से हिंदुत्ववादी राजनीति की मुखर आलोचक भी थीं। गौरी लंकेश कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम भी लिखा करती थी। पूरी दुनिया जानती है कि गौरी लंकेश राइट विंग की मुखर आलोचक मानी जाती थी। यही वजह थी कि वैचारिक मतभेद को लेकर गौरी लंकेश कुछ कटटर और संकीर्ण लोगों के निशाने पर थी। जनूनी लोग आखिर उसकी जान के दुश्मन हो गए। नवरात्र में देवी के ९ रूपों की पूजा करने वाले देश में सरस्वती की एक पुजारिन की हत्या कर दी गयी। 
दिलचस्प बात थी कि गौरी लंकेश जिस साप्ताहिक पत्रिका का संचालन करतीं थी उसमे कोई विज्ञापन नहीं लिया जाता था। यही सिद्धांत गौरी की शक्ति बना हुआ था। उसे खरीदा या दबाया नहीं जा सकता था। वास्तव में उस पत्रिका को 50 लोगों का एक ग्रुप चलाता था अपनी मेहनत की कमाई से। पिछले वर्ष भाजपा  सांसद प्रह्लाद जोशी की तरफ से दायर मानहानि मामले में गौरी लंकेश को दोषी करार दिया गया था, जिन्होंने उनके टैब्लॉयड में भाजपा नेताओं के खिलाफ एक खबर पर आपत्ति जताई थी। गौरी लंकेश मीडिया की आजादी की पक्षधर थीं। आखिर इस आवाज़ को खामोश कर दिया गया। यह एक हमला नहीं ऐलान है कि हम आज़ादी के पक्षधरों को ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। जो बिक न सकेगा उसे मिटना होगा। क्या आप सब कुछ चुपचाप देखेंगे। 
कम से कम हम तो नहीं देखेंगे। इंतज़ार कीजिये कल तक आप तक एक ठोस प्रोग्राम पहुंचेगा। एक जुट होना अब एक नारा नहीं एक आवश्यकता बन गयी है। सांत्वना की एक बात ज़रूर है कि अब सच की रह पर चलने वाले और बिकने की मंडी में खड़े होने वालों के दरम्यान एक रेखा गहरी हो जाएगी।  फैसला आपके हाथ कि आप किस तरफ हैं। 

Wednesday, August 30, 2017

"डेरे" पर जीत की जंग के असली हीरो


मिलिए उस गुमनाम क्रांतिकारी से
जिसके संघर्ष के बिना बलात्‍कारी बाबा की सीबीआइ जांच असंभव थी!
By अभिषेक श्रीवास्तव -  August 28, 2017
गुरमीत राम रहीम की सज़ा की मात्रा पर फैसला आने वाला है। दो दिन पहले उसे बलात्‍कार का दोषी करार दिया जा चुका है। घटनाओं की क्षणजीविता के इस दौर में जब मीडिया ने चार दिन पहले राम राहीम के बलात्‍कार कांड की परतें दोबारा खोदना शुरू की थीं, तो उसे इस घटना के केंद्र में एक पत्रकार हाथ लगा था। रामचंद्र छत्रपति- जिन्‍हें हर वह शख्‍स जानता है जो 2002 में उन्‍हें गोली मारे जाने के वक्‍त सक्रिय था। छत्रपति वास्‍तव में इस प्रकरण में नायक बनकर उभरते हैं क्‍योंकि गुमनाम साध्‍वी द्वारा प्रधानमंत्री व अन्‍य को लिखी गई चिट्ठी को सबसे पहले उन्‍होंने ही सांध्‍य दैनिक ‘पूरा सच’ में प्रकाशित किया था। रामचंद्र छत्रपति को 24 अक्‍टूबर 2002 को डेरे के कुछ लोगों ने गोली मार दी थी। आज तक उनकी हत्‍या का मुकदमा चल रहा है। 
रामचंद्र के मारे जाने के बाद हरियाणा में कुछ और लोग थे जो मीडिया की चमक-दमक से दूर साध्‍वी बलात्‍कार कांड के लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे थे। यह संघर्ष चिट्ठी प्रकाशित होने के पहले शुरू हुआ था और 5 फरवरी 2003 को परवान चढ़ा था जब जन संघर्ष मंच, हरियाणा के कुछ नेताओं और कार्यकर्ताओं को मामले की सीबीआइ जांच की मांग के चलते जेल में ठूंस दिया गया था और उन पर लगातार छह साल तक मुकदमा चला। एक गुमनाम चिट्ठी के आधार पर इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने वाले ये गुमनाम चेहरे आज भी मीडिया में नहीं आ सके हैं। इन्‍होंने बलात्‍कारी बाबा का राज़फाश करने में जितनी मेहनत की और जितनी यातनाएं झेलीं, वे कहानियां नायक और खलनायक की फिल्‍मी दास्‍तान के बीच दबकर रह गईं।

इन्‍हीं बेहद आम और मामूली नायकों में एक थीं हरियाणा की एडवोकेट और जन संघर्ष मंच की महासचिव सुदेश कुमारी, जो उस वक्‍त मंच की संयोजक हुआ करती थीं। सुदेश कुमारी का दलित और महिला उत्‍पीड़न के मामलों में संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है, लेकिन बीते चार दिनों से जो कहानी मीडिया में छायी हुई है उसके किरदारों में उन्‍हें अब तक अपनी वाजिब जगह नहीं मिल सकी है।
कुरुक्षेत्र में रहने वाली सुदेश कुमारी से मीडियाविजिल ने लंबी बातचीत की और जानने की कोशिश की कि आखिर एक गुमनाम चिट्ठी के आधार पर अदालत ने जो स्‍वत: संज्ञान लेकर बलात्‍कार का मुकदमा कायम किया और बलात्‍कारी बाबा की सीबीआइ जांच हुई, उसमें हरियाणा के आम लोगों और जन संगठनों की क्‍या भूमिका थी। आखिर पूरी कहानी की शुरुआत कैसे होती है और किन पड़ावों से होकर यह आज ऐसी स्थिति में पहुंची है जब इतने ताकतवर बाबा को सज़ा सुनाई जानी है।

राम रहीम के बलात्‍कार कांड की कहानी 10 जुलाई, 2002 को शुरू होती है जब पीडि़ता साध्‍वी के भाई रणजीत सिंह की हत्‍या हुई थी। रणजीत सिंह की पांच बहनें थीं और वह बाबा राम रहीम का बहुत करीबी अनुयायी हुआ करता था। हरियाणा राज्‍य की डेरे की जो 10 सदस्‍यीय आंतरिक कमेटी थी, वह उसका सदस्‍य था। डेरे के भीतर उसकी एक कोठी भी थी। साध्‍वी के साथ जब बलात्‍कार हुआ, तो उसने सबसे पहले इसकी जानकारी अपने भाई रणजीत को दी थी। रणजीत से यह सहन नहीं हुआ, तो उसने डेरे से अपना नाता तोड़ लिया और अपने साथियों के माध्‍यम से उसने साध्‍वी से बलात्‍कार वाली गुमनाम चिट्ठी का प्रचार करना शुरू किया। उससे माफी मांगने को भी कहा गया था लेकिन वह नहीं डिगा। इसी के चलते उासकी हत्‍या कर दी गई। इस मामले में यह पहली हत्‍या थी जिसका मुकदमा अनजान लोगों के खिलाफ़ दर्ज हुआ और आज तक सुनवाई जारी है।

रणजीत के दो छोटे बेटे और एक बिटिया थी। उसका बाप बुजुर्ग था। घर में और कोई पुरुष सदस्‍य नहीं था। जब रणजीत की हत्या हुई, तब साध्‍वी जन संघर्ष मंच, हरियाणा की संयोजक सुदेश कुमारी के संपर्क में आई और उसने अपनी आपबीती सुनाई। सुदेश बताती हैं, ”साध्‍वी इतनी डरी हुई थी कि उसे लग रहा था कि कहीं उसकी भी हत्‍या अपने भाई की तरह न हो जाए। उसकी करोई शिकायत नहीं लिखी ला रही थी। पुलिस भी मिली हुई थी। साध्‍वी का कहना था कि अगर एक बार उसके भाई की हत्‍या की जांच सीबीआइ से हो जाए तो सारा मामला खुल जाएगा।” मंच ने यहीं से सीबीआइ जांच की मांग का आंदोलन छेड़ा।

तब तक रामचंद्र छत्रपति इस मामले में कहीं भी सामने नहीं आए थे। गुमनाम चिट्ठी किसी और अख़बार में जब नहीं छपी, तब छत्रपति ने अपने अखबार में उसे छापा। उनकी हत्‍या हो गई। यह इस मामले में दूसरी हत्‍या थी। हत्‍यारों को मौके पर ही पकड़ लिया गया। वे डेरे के लोग थे। उन्‍होंने बयान दिया कि हमें किशनलाल ने भेजा है मारने के लिए, जो डेरे का प्रबंधक है। सुदेश कहती हैं, ”जब छत्रपतिजी की अस्थियां आई तो उस वक्‍त एक शोकसभा हुई और हमने ये प्रस्‍ताव पास किया कि सीबीआइ जांच के लिए एक अभियान चलाया जाए जिससे पत्रकार को, रणजीत को और साध्‍वी तीनों को इंसाफ़ मिल सके। फिर हमने इस मिशन के लिए योजना बनाई।”

कुरुक्षेत्र में हर साल गीता उत्‍सव होता है। 2002 में भी हुआ। उसमें उपराष्‍ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत को आना था। उस मौके का फायदा उठाते हुए सुदेश कुमारी के महिला संगठन ने ब्रह्म सरोवर पर आयोजित कार्यक्रम में बीच में ही बलात्‍कार और दोनों हत्‍याओं के मामले में खोल दिया। गीता उत्‍सव के बीचोबीच भारी प्रदर्शन हुआ और सुदेश व अन्‍य को गिरफ्तार कर लिया गया। इनके दिमाग में यह था कि उपराष्‍ट्रपति के आने पर अगर मामले को खोला जाए तो शायद इसका कुछ असर पड़े।

इसके बाद जन संघर्ष मंच पर बाबा के लोगों ने संगठित हमले शुरू किए। वे बताती हैं, ”कोई भी राजनीतिक दल सामने नहीं आया। हमें हत्‍या की धमकी दी गई। हमारा वीडियो बनाया गया। उस समय मैं कनवीनर थी मंच की… हमने सूझबूझ के साथ पब्लिक प्‍लेस, कॉलेज आदि जगहों पर अलग-अलग जिलों में कैंप लगाए। सोनीपत, सिरसा, झज्‍जर… उस वक्‍त हमने कुल 15 जिले कवर किए और प्रचार चलाया।”

इस अभियान के क्रम में 5 फरवरी 2003 को सुदेश अपने साथियों के संग फतेहाबाद पहुंचीं। उनके साथ पांच महिलाएं थीं और नौ छात्र थे। सुबह दस बजे इन्‍होंने प्रचार करने के लिए कैंप लगाया। कुरुक्षेत्र के बस स्‍टैंड पर इन्‍होंने पोस्‍टर लगाए और जन दबाव बड़े पैमाने पर कायम हुआ। सीबीआइ जांच की मांग के लिए लाखों हस्‍ताक्षर करवाए गए। 5 फरवरी को फतेहाबाद के बस अड्डे पर सबसे बड़ा हमला डेरा समर्थकों की ओर से हुआ। करीब पांच-सात सौ लोगों ने इकट्ठा होकर औरतों के ऊपर हमला किया। कपड़े फाड़ दिए गए। चुन्नियां खींचीं। मारा पीटा। चोट लगी। लूटपाट हुआ। सारे काग़ज़ात लूट लिए गए। फतेहाबाद पुलिस इन्‍हें थाना सिटि ले गई और यह समझाया कि वे लोग हज़ारों की संख्‍या में हैं इसलिए इनकी जान को खतरा है। बचाने के बहाने से पुलिस इन्‍हें थाने ले गई और वहां उलटे इन्‍हीं के ऊपर हत्‍या की कोशिश का मुकदमा कायम कर दिया। यह आरोप लगाया कि इन 5 महिलाओं और 9 पुरुषों ने हत्‍या करने के उद्देश्‍य से डेरा समर्थकों पर हमला किया।

सुदेश बताती हैं, ”307 में ज़मानत नहीं हो सकती थी, तो हमें हिसार जेल में रखा गया। हम डेढ़ महीने जेल में रहे। उसके बाद ज़मानत हो सकी। प्रशासन पूरा मिला हुआ था। डॉक्‍टरो को भी इन्‍होंने मिला लिया। झूठी रिपोर्ट लिखवा ली।” इनके अंदर जाने के बाद समूचे राज्‍य में बड़े प्रदर्शन हुए और मंच ने सघन एकजुट अभियान चलाया।

दूसरी धाराओं में इनके ऊपर छह साल तक केस चला। 10 जून 2009 को इन्‍हें बरी किया गया। इनके ऊपर लगे आरोप के पक्ष में एक परचे की बरामदगी को सबूत दिखाया गया था जिसमें इन्‍होंने बाबा की सीबीआइ जांच की मांग की थी। इनके अभियान का असर ये हुआ कि 2003 के अंत में रणजीत सिंह और छत्रपति दोनों की हत्‍या के मामले सीबीआइ को सौंपे गए। बलात्‍कार का मामला तो स्‍वत: संज्ञान में लिया जा चुका था क्‍योंकि गुमनाम चिट्ठी तो पंजाब और हरियाणा के मुख्‍य न्‍यायाधीश को भी भेजी गई थी। अगर जन संघर्ष मंच का अभियान न चलता, तो शायद ये मामले दबकर रह जाते।

सुदेश कुमारी बताती हैं, ”हत्‍या के दोनों मामले में फाइनल आर्गुमेंट चल रहा है। तीनों मुकदमे अलग चल रहे हैं लेकिन आज के फैसले से मोटिव क्‍लीयर हो जाएगा जो बाकी दोनों के मामले में कनविक्‍शन में मदद देगा।”

कविता विद्रोही जी की प्रेरणा से मिले लिंक मीडिया विजिल से साभार 

Saturday, August 26, 2017

डेरे का अंजाम: पत्रकार छत्रपति और बहादुर साध्वियों को सलाम

Shame:कब तक ऐसी चौखटों पर माथे रगड़ेंगे सत्ता लोलुप नेता?
देश की लहूलुहान भूमि पंचकूला से: 25 अगस्त 2017: (मीडिया स्क्रीन ब्यूरो)::

जो लोग पत्रकारों पर छींटाकशी करते नहीं थकते उनको शायद समझ में आ गया होगा की कलम के मैदान की ज़िंदगी आसान नहीं होती। खुद ही कैमरे पर बताना पढ़ता है की अभी अभी मुझ पर भी हमला हुआ। हाल ही में अहंकार की जो लंका जली है उसको जलाने के लिए एक बहादुर पत्रकार रामचंद्र छत्रपति ने युद्ध की घोषणा की थी और इसमें डाली थी अपनी जान की आहूति। छत्रपति जी की बहादरी और जज़्बात को सलाम। इस लंका को जलाने में है उन दो बहादर साध्वियों की हिम्मत जिन्होंने समझ लिया था की डर के आगे जीत है। अगर उन्होंने इस डेरे में आते बड़े बड़े लोगों की ताक़त को देख कर अपने घुटने टेक दिए होते तो आज सारी हकीकत दुनिया के सामने नहीं खुलती। उनकी हिम्मत को सलाम करना बनता है। सभी ने देख लिया क्या क्या कर सकते हैं डेरों में जाने वाले भक्त और इन्हीं डेरों में जा कर सजदे करने वाले। 
क्या आपको हैरानी नहीं होती यह जान कर कि कभी जिसकी ताकत के आगे सरकारें भी नतमस्तक रहीं, हर दल के नेता भी, बड़े बड़े लोग भी--उस डेरा सच्चा सौदा प्रमुख की हकीकत को सामने लाने तथा उसके दुष्कर्म को अंजाम तक पहुंचाने के पीछे कई ऐसे नाम हैं जो चर्चा में भी नहीं आए। असली जंग के असली हीरो। हम उन सभी को सलाम करते हैं। इनमें दिवंगत पत्रकार राम चंदेर छत्रपति, दो पीड़ित साध्वियां तथा सीबीआई अधिकारी सतीश डागर।श्री डगर नहीं होते तो शायद डेरे प्रमुख इस अंजाम तक नहीं पहुंच पाते। 

गौरतलब है कि 15 साल पहले डेरा के अंदर साध्वियों के साथ हुए यौन उत्पीड़न को पत्रकार राम चंदेर छत्रपति ने ही उजागर किया था से साप्ताहिक अख़बार के ज़रिये। उस अख़बार का नाम  है 'पूरा सच' जो सचमुच सच बोलता था।  इस अखबार को निकालने वाले छत्रपति ने डेरा का पूरा सच और एक गुमनाम पत्र को अपने अखबार में छाप दिया जिसमें दो साध्वियों के साथ बलात्कार और यौन हिंसा की बात स्पष्ट लिखी गयी थी। यह गुमनाम पत्र उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी भेजा गया था। 
इस सारे मामले को छापने के कुछ ही समय के भीतर छत्रपति जी पर हमला हुआ। पत्रकार छत्रपति की हत्या गयी। यौन शोषण की शिकायत करने वाली दो साध्वियों के भाई रंजीत की भी हत्या की गयी। एक पत्रकार ने सच के लिए जान दे दी। एक भाई को बहनों की इज़्ज़त की रक्षा के लिए जान गंवानी पड़ी। इस सब के बावजूद सत्ता लोलुप नेताओं ने बाबा के दरबार में जा कर माथे रगड़ना नहीं छोड़ा।  बात बात पुरानी होती चली गयी लेकिन कुछ लोग इन्साफ दिलाने के लिए सक्रिय रहे। 
इस सारे सच को दुनिया के सामने लाने वाले पत्रकार राम चंदेर छत्रपति को शहीद कर दिया गया। एक हंसता मुस्कुराता साहसिक पत्रकार बीच शहर में मार दिया गया। उसे सच लिखने की सज़ा मिली। सत्ता से चिपके रहने की चाह में जीने और मरने वाले नेताओं को फिर भी शर्म नहीं आयी। राम चंदेर के बेटे अंशुल ने मीडिया को बताया कि एक बार जब लड़ने का फैसला कर घर से निकले तो रास्ते में बहुत से अच्छे लोग भी उन्हें मिले। तमाम दबावों के बाद भी कुछ लोगों ने हमारा और साध्वियों का ही साथ दिया। इस तरह न्याय के पथ पर यह छोटा सा काफिला अपनी क्षमता के मुताबिक बढ़ता रहा। 
अंशुल बताते हैं-यही नहीं सीबीआई के जाबांज़ डीएसपी सतीश डागर न होते तो यह केस अपने मुकाम पर नहीं पहुंच पाता। सतीश डागर ने ही साध्वियों को मानसिक रूप से तैयार किया। एक लड़की का ससुराल डेरा का समर्थक था। जब उसे पता चला कि उसने गवाही दी है तो उसे तुरंत घर से निकाल दिया गया। इसके बाद भी लड़कियां तमाम तरह के दबावों और भीड़ के खौफ का सामना करती रहीं। नवरात्र के व्रत रखने और देवी के 9 रूपों  वाले समाज ने साथ भी दिया तो रावण और कौरवों का। किसी महिला संगठन ने अब भी इस मुद्दे को नहीं उठाया।  
सतीश डागर नहीं होते तो ये लोग खौफ का सामना नहीं कर पाते। वही इनके लिए नैतिक हिम्मत बने। अंशुल ने बताया कि सतीश डागर पर भी बहुत दबाव पड़ा। मगर वह नहीं झुके। बड़े-बड़े आईपीएस ऐसी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं मगर डीएसपी सतीश डागर ने कमाल का साहस दिखाया। अंशुल ने बताया कि पहले पंचकूला से सीबीआई की कोर्ट अंबाला में थी। जब ये लोग वहां सुनवाई के लिए जाते थे तब वहां भी बाबा के समर्थकों की भीड़ आतंक पैदा कर देती थी। हालत यह हो गई कि जिस दिन सुनवाई होती थी और बाबा की पेशी होती थी उस दिन अंबाला पुलिस लाइन के भीतर एसपी के ऑफिस में अस्थायी कोर्ट बनाया जाता था। छावनी के बाहर समर्थकों का हुजूम होता था। ऐसी हालत में उन दो साध्वियों ने गवाही दी और डटी रहीं, आसान बात नहीं उस बाबा के खिलाफ जिससे मिलने कांग्रेस, अकाली दल और  भाजपा के बड़े-बड़े नेता सलामी देने जाते थे। 

अय्याशी और खौफ के साम्राज्य के उस किले में बाबा के चेले क्या सीख रहे थे यह सब अब पूरे देश के साथ दुनिया ने भी देख लिया। क्या इस तरह सत्ता के सामांतर किले खड़े करने वाले  भी कोई सबक सिखाया जायेगा? क्या इस तरह के डेरे अब भी चलते रहेंगे।  क्या अब भी जारी रहेगा इन डेरों के अंदर इन बाबाओं कानून? सत्ता लोलुप नेता अब भी इसी तरह इस चौखटों पर माथे रगड़ रगड़ कर देश और समाज को बेबस करते रहेंगे?  

Tuesday, August 22, 2017

भगत सिंह पर आरएसएस का दोमुंहापन//नवजीवन

कांग्रेस ने भी भगत सिंह को वह महत्व नहीं दिया जिसके वह हकदार थे
इलाहाबाद में भगत सिंह और उनके साथियों को श्रद्धांजलि / फोटो : Prabhat Kumar Verma/Pacific Press/LightRocket via Getty Images
भगवा चिट्ठा BHAGWA-CHITTHA
चमनलाल Updated: 21 Aug 2017, 6:05 PM
बीजेपी और आरएसएस एक तरफ तो भगत सिंह को हीरो बनाने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरफ हरियाणा में बीजेपी सरकार चंडीगढ़ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम आरएसएस नेता मंगल सैन के नाम पर रखना चाहती है।
1931 आते आते शहीद भगत सिंह असली मायनों में राष्ट्रीय प्रतीक बन चुके थे। भगत सिंह एक ऐसा व्यक्तित्व हैं जिसे महज 23 साल की उम्र में उस साल 23 मार्च को फांसी पर लटका दिया गया था। भगत सिंह और दूसरे क्रांतिकारियों ने जब एएसपी जॉन सॉडर्स की हत्या की तो रातों रात वे पूरे देश के लिए हीरो बन गए। उस जमाने में देश की किसी भी भाषा का कोई भी अखबार ऐसा नहीं था जिसने इनके मुकदमे की रिपोर्ट न छापी हो। 1929 से 1931 के बीच तमाम सुर्खियों का केंद्र शहीद भगत सिंह ही रहे। महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू तक हर राष्ट्रीय नेता ने भगत सिंह के मुकदमे के बारे में बयान जारी किए और मुकदमे की सुनवाई के दौरान टिप्पणियां की। लेकिन उस दौर का एक भी आरएसएस नेता सामने नहीं आया जिसने भगत सिंह की फांसी के खिलाफ एक भी शब्द बोला हो। गोलवलकर और सावरकर दोनों की इस मामले में चुप्पी शक पैदा करती है। ये दोनों भी स्वंयभू क्रांतिकारी थे, लेकिन इन्होंने भगत सिंह की फांसी का विरोध नहीं किया। यहां तक कि शोधकर्ताओँ को पेरियार का भी एक बयान मिलता है जिसमें उन्होंने भगत सिंह को फांसी दिए जाने की निंदा की थी, लेकिन संघ से जुड़े किसी व्यक्ति का कोई भी बयान या टिप्पणी तलाशने पर भी नहीं मिलती। ये विडंबना नहीं तो क्या है कि इन्हीं भगत सिंह को आरएसएस आज अपना आदर्श बनाने और उनकी विरासत को अपनाने बनाने की कोशिश कर रही है। भगत सिंह दो साल तक जेल में रहे और इस दौरान उन्होंने समाचारपत्रों और अपने साथियों को लंबे लंबे बेशुमार पत्र लिखे। जब भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली में बम फेंके थे तो टाइम्स ऑफ इंडिया की हेडलाइन थी, “रेड्स स्टॉर्म दि असेंबली”। और ये भी तथ्य है कि भगत सिंह द्वारा दिया गया नारा, “इंकिलाब जिंदाबाद” बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसलिए इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि भगत सिंह अपने विचारों से एक कम्यूनिस्ट थे और उनके लेखन में समाजवादी विचार ही झलकते थे। मॉडर्न रिव्यू, ट्रिब्यून, आनंदबाजार पत्रिका, हिंदुस्तान टाइम्स और उस दौर के सभी दूसरे प्रमुख अखबारों में भगत सिंह के लेख प्रमुखता से प्रकाशित भी होते थे। यहां तक कि असेंबली में उन्होंने जो पर्चे फेंके थे, वे भी लाल रंग के ही थे। ये भी ध्यान देने की बात है कि देस के अलग-अलग कोनों से प्रकाशित होने वाले सभी अखबार भगत सिंह के संदेशों को मान्यता देने और उन्हें प्रमुखता से छापने में एक थे। इनमें इलाहाबाद से प्रकाशित दि लीडर, कानपुर का प्रताप, बॉम्बे (अब मुंबई) से प्रकाशित फ्री प्रेस जर्नल, मद्रास (अब चेन्नई) से प्रकाशित दि हिंदू के अलावा लाहौर, दिल्ली और कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रकाशित होने वाले अखबार भी शामिल हैं। अखबारों में उन्हें लेकर इतना अधिक छपता था कि भगत सिंह उस दौर के सबसे लोकप्रिय नेता बन गए थे।
भगत सिंह के राष्ट्र और राष्ट्रवाद के विचार को नए सिरे से स्थापित करने की तुरंत जरूरत है। उन्होंने सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ लिखा। उन्होंने दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ लिखा। उनका राष्ट्रवाद संकीर्णता वाला नहीं बल्कि अच्छी तरह सोचे-समझे विचारों और तर्कों पर आधारित था। उनका राष्ट्रवाद संघ परिवार के संकीर्ण और सीमित तर्कों का असली जवाब है।
हिचकिचाते हुए ही सही, लेकिन महात्मा गांधी ने भी स्वीकारा था कि भगत सिंह बेहद साहसी व्यक्ति थे। जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि भगत सिंह के विचार अत्यंत प्रगतिशील थे। लेकिन इन साहसी और प्रगतिशील विचारों को सतर्कता के साथ मानने के बावजूद कांग्रेस नेताओं ने कभी भी भगत सिंह को वह महत्व नहीं दिया जिसके कि वे हकदार थे। आजादी के बाद भी भगत सिंह के लेखों को अनदेखा किया जाता रहा। यहां ये ध्यान दिलाना जरूरी है कि भगत सिंह की रचना, मैं एक नास्तिक क्यों हूं, को हिंदी से बहुत पहले, सबसे पहले 1934 में पेरियार ने तमिल में अनुदित किया। 70 के दशक के नक्सलवाड़ी आंदोलन के दौरान वामपंथियों ने भगत सिंह की विरासत पर अपना अधिकार जताया लेकिन न तो मीडिया और न ही शिक्षा जगत ने इस पर कोई विशेष ध्यान दिया। यही वह समय था जब इतिहासकार बिपन चंद्रा ने एक नई रूपरेखा के साथ भगक सिंह की रचना, मैं नास्तिक क्यों हूं को पुस्तक के रूप में दोबारा प्रकाशित किया। इस पुस्तक के बाद से भगत सिंह में नए सिरे से रूचि पैदा हुई। भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र संधू ने भी भगत सिंह पर एक पुस्तक लिखी और मेरी पुस्तक, भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज, भी 1986 में राजकमल प्रकाशन ने छापी। हालांकि इस पुस्तक के कई संस्करण आ चुके हैं लेकिन बिपन चंद्रा की पुस्तक के अलावा अंग्रेजी में भगत सिंह पर बहुत ज्यादा कुछ उपलब्ध नहीं है। यही वह समय भी था जब बीजेपी और आरएसएस ने भगत सिंह पर अपना दावा करना शुरु किया। अलग खालिस्तान की मांग के आंदोलन के दौरान इन्हीं तत्वों ने दावा किया कि भारत माता की जय का नारा दरअसल भगत सिंह ने दिया था। हो सकता है कि भगत सिंह ने ये नारा भी लगाया हो, लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि फांसी पर झूलने से पहले भगत सिंह ने जो आखिरी नारा लगाया था और जो लोगों की जुबान पर था, वह है इंकिलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद । आरएसएस के मुखपत्र पॉच्जन्य ने 2007 में भगत सिंह पर एक विशेषांक निकाला था। करीब 100 पन्नों के इस विशेषांक में ये साबित करने की कोशिश की गयी कि भगत सिंह कम्यूनिस्ट नहीं थे और उन्होंने, मैं नास्तिक क्यों हूं, नाम की रचना नहीं लिखी थी। वामदल काफी देर से भगक सिंह के क्रांतिकारी किरदार को समझ पाए। वामदलों की सरकारों ने अनमने तरीके से भगत सिंह के पत्रों को प्रकाशित किया और आखिरकार दस्तावेज भी मराठी में अनुदित हुई। नतीजा ये निकला कि आरएसएस और बीजेपी को यह मानने पर मजबूर होना पड़ा कि भगत सिंह दरअसल एक कम्यूनिस्ट और नास्तिक थे। लेकिन अब संघ और बीजेपी उन्हें नए सिरे से अपने तरीके का राष्ट्रवादी साबित करने पर तुले हुए हैं, लेकिन यह तथ्य है कि भगत सिंह के राष्ट्रवाद और संघ के संकीर्ण राष्ट्रवाद में जमीन-आसमान का फर्क है। दरअसल भगत सिंह उस आजादी के पक्ष में नहीं थे जिसमें गोरे साहबों की जगह भारतीय साहब, जिन्हें उस दौर में ब्राउन साहब कहा जाता था। उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी जिसमें कामगारों, किसानों और आम लोगों को आजादी मिले और वे सशक्त और सक्षम हों। उन्होंने वैश्विक और अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे और महासंघ की बात की थी। लेकिन बीजेपी का दोगलापन जगजाहिर है। मिसाल के तौर पर, यह तय हो चुका था कि चंडीगढ़ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम शहीद भगत सिंह के नाम पर होगा। लेकिन जब से हरियाणा में बीजेपी सरकार आयी है, लगातार ये कोशिशें हो रही हैं कि हवाई अड्डे का नाम आरएसएस नेता मंगल सैन के नाम पर कर दिया जाए। ("नवजीवन इंडिया" से साभार)

(डॉ चमनलाल जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर और एक प्रमुख शिक्षाविद्, लेखक और अनुवादक हैं। भगत सिंह पर उनका लेखन प्रसिद्ध है। यहां पेश विचार उन्होंने विश्वदीपक शर्मा से बातचीत में व्यक्त किए)