Saturday, August 26, 2017

डेरे का अंजाम: पत्रकार छत्रपति और बहादुर साध्वियों को सलाम

Shame:कब तक ऐसी चौखटों पर माथे रगड़ेंगे सत्ता लोलुप नेता?
देश की लहूलुहान भूमि पंचकूला से: 25 अगस्त 2017: (मीडिया स्क्रीन ब्यूरो)::

जो लोग पत्रकारों पर छींटाकशी करते नहीं थकते उनको शायद समझ में आ गया होगा की कलम के मैदान की ज़िंदगी आसान नहीं होती। खुद ही कैमरे पर बताना पढ़ता है की अभी अभी मुझ पर भी हमला हुआ। हाल ही में अहंकार की जो लंका जली है उसको जलाने के लिए एक बहादुर पत्रकार रामचंद्र छत्रपति ने युद्ध की घोषणा की थी और इसमें डाली थी अपनी जान की आहूति। छत्रपति जी की बहादरी और जज़्बात को सलाम। इस लंका को जलाने में है उन दो बहादर साध्वियों की हिम्मत जिन्होंने समझ लिया था की डर के आगे जीत है। अगर उन्होंने इस डेरे में आते बड़े बड़े लोगों की ताक़त को देख कर अपने घुटने टेक दिए होते तो आज सारी हकीकत दुनिया के सामने नहीं खुलती। उनकी हिम्मत को सलाम करना बनता है। सभी ने देख लिया क्या क्या कर सकते हैं डेरों में जाने वाले भक्त और इन्हीं डेरों में जा कर सजदे करने वाले। 
क्या आपको हैरानी नहीं होती यह जान कर कि कभी जिसकी ताकत के आगे सरकारें भी नतमस्तक रहीं, हर दल के नेता भी, बड़े बड़े लोग भी--उस डेरा सच्चा सौदा प्रमुख की हकीकत को सामने लाने तथा उसके दुष्कर्म को अंजाम तक पहुंचाने के पीछे कई ऐसे नाम हैं जो चर्चा में भी नहीं आए। असली जंग के असली हीरो। हम उन सभी को सलाम करते हैं। इनमें दिवंगत पत्रकार राम चंदेर छत्रपति, दो पीड़ित साध्वियां तथा सीबीआई अधिकारी सतीश डागर।श्री डगर नहीं होते तो शायद डेरे प्रमुख इस अंजाम तक नहीं पहुंच पाते। 

गौरतलब है कि 15 साल पहले डेरा के अंदर साध्वियों के साथ हुए यौन उत्पीड़न को पत्रकार राम चंदेर छत्रपति ने ही उजागर किया था से साप्ताहिक अख़बार के ज़रिये। उस अख़बार का नाम  है 'पूरा सच' जो सचमुच सच बोलता था।  इस अखबार को निकालने वाले छत्रपति ने डेरा का पूरा सच और एक गुमनाम पत्र को अपने अखबार में छाप दिया जिसमें दो साध्वियों के साथ बलात्कार और यौन हिंसा की बात स्पष्ट लिखी गयी थी। यह गुमनाम पत्र उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी भेजा गया था। 
इस सारे मामले को छापने के कुछ ही समय के भीतर छत्रपति जी पर हमला हुआ। पत्रकार छत्रपति की हत्या गयी। यौन शोषण की शिकायत करने वाली दो साध्वियों के भाई रंजीत की भी हत्या की गयी। एक पत्रकार ने सच के लिए जान दे दी। एक भाई को बहनों की इज़्ज़त की रक्षा के लिए जान गंवानी पड़ी। इस सब के बावजूद सत्ता लोलुप नेताओं ने बाबा के दरबार में जा कर माथे रगड़ना नहीं छोड़ा।  बात बात पुरानी होती चली गयी लेकिन कुछ लोग इन्साफ दिलाने के लिए सक्रिय रहे। 
इस सारे सच को दुनिया के सामने लाने वाले पत्रकार राम चंदेर छत्रपति को शहीद कर दिया गया। एक हंसता मुस्कुराता साहसिक पत्रकार बीच शहर में मार दिया गया। उसे सच लिखने की सज़ा मिली। सत्ता से चिपके रहने की चाह में जीने और मरने वाले नेताओं को फिर भी शर्म नहीं आयी। राम चंदेर के बेटे अंशुल ने मीडिया को बताया कि एक बार जब लड़ने का फैसला कर घर से निकले तो रास्ते में बहुत से अच्छे लोग भी उन्हें मिले। तमाम दबावों के बाद भी कुछ लोगों ने हमारा और साध्वियों का ही साथ दिया। इस तरह न्याय के पथ पर यह छोटा सा काफिला अपनी क्षमता के मुताबिक बढ़ता रहा। 
अंशुल बताते हैं-यही नहीं सीबीआई के जाबांज़ डीएसपी सतीश डागर न होते तो यह केस अपने मुकाम पर नहीं पहुंच पाता। सतीश डागर ने ही साध्वियों को मानसिक रूप से तैयार किया। एक लड़की का ससुराल डेरा का समर्थक था। जब उसे पता चला कि उसने गवाही दी है तो उसे तुरंत घर से निकाल दिया गया। इसके बाद भी लड़कियां तमाम तरह के दबावों और भीड़ के खौफ का सामना करती रहीं। नवरात्र के व्रत रखने और देवी के 9 रूपों  वाले समाज ने साथ भी दिया तो रावण और कौरवों का। किसी महिला संगठन ने अब भी इस मुद्दे को नहीं उठाया।  
सतीश डागर नहीं होते तो ये लोग खौफ का सामना नहीं कर पाते। वही इनके लिए नैतिक हिम्मत बने। अंशुल ने बताया कि सतीश डागर पर भी बहुत दबाव पड़ा। मगर वह नहीं झुके। बड़े-बड़े आईपीएस ऐसी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं मगर डीएसपी सतीश डागर ने कमाल का साहस दिखाया। अंशुल ने बताया कि पहले पंचकूला से सीबीआई की कोर्ट अंबाला में थी। जब ये लोग वहां सुनवाई के लिए जाते थे तब वहां भी बाबा के समर्थकों की भीड़ आतंक पैदा कर देती थी। हालत यह हो गई कि जिस दिन सुनवाई होती थी और बाबा की पेशी होती थी उस दिन अंबाला पुलिस लाइन के भीतर एसपी के ऑफिस में अस्थायी कोर्ट बनाया जाता था। छावनी के बाहर समर्थकों का हुजूम होता था। ऐसी हालत में उन दो साध्वियों ने गवाही दी और डटी रहीं, आसान बात नहीं उस बाबा के खिलाफ जिससे मिलने कांग्रेस, अकाली दल और  भाजपा के बड़े-बड़े नेता सलामी देने जाते थे। 

अय्याशी और खौफ के साम्राज्य के उस किले में बाबा के चेले क्या सीख रहे थे यह सब अब पूरे देश के साथ दुनिया ने भी देख लिया। क्या इस तरह सत्ता के सामांतर किले खड़े करने वाले  भी कोई सबक सिखाया जायेगा? क्या इस तरह के डेरे अब भी चलते रहेंगे।  क्या अब भी जारी रहेगा इन डेरों के अंदर इन बाबाओं कानून? सत्ता लोलुप नेता अब भी इसी तरह इस चौखटों पर माथे रगड़ रगड़ कर देश और समाज को बेबस करते रहेंगे?  

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