सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के नाम एक महिला का पत्र
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पत्र लिखने वाली महिला आशु वर्मा |
महामहिम, आप से बेहतर कौन यह जानता है कि आलोचना, आन्दोलन और विरोध लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण अवयव है। वह तो लोकतंत्र की आत्मा है। उसी से लोकतंत्र लोकतंत्र बना रहता है। और जब किसी वर्गीय आन्दोलन में उस वर्ग की आधी आबादी यानि उस वर्ग की महिलाओं की भागेदारी भारी संख्या में हो रही हो तो मामला जरूर संगीन होगा, यह तो आप भी समझते होंगे। अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस विषय पर बात कर रही हूँ।
आपने किसान आन्दोलन में शामिल महिला किसानों के बारे में कह दिया कि इन्हें आन्दोलन में नहीं शामिल होना चाहिए। इन्हें वहां से हटाया जाना चाहिए। आपने ऐसा कैसे कह दिया? महोदय, आपके इस सुझाव से मैं बेहद आहत और क्रुद्ध हूँ। आखिर न्यायापालिका के संरक्षक ने भी यही मान लिया कि ये ‘सामान्य महिलाएं’ हैं जो अपने-अपने पतियों के साथ की अर्धांगनी होने का फर्ज निभाने आई हैं। अधिकांश लोग तो यह मानते ही हैं कि ‘महिलाएं किसान नहीं होतीं’। लेकिन अफ़सोस कि आपने भी ऐसा ही माना।
आपने तो पूरा जीवन संविधान की सेवा में बिताया है। इस लम्बे न्यायिक सफ़र में तमाम समुदायों की तकलीफों भरी, न्याय मांगती याचिकाएं आपकी नजरों के सामने से गुजरी होंगी। आप से तो उम्मीद की जाती है कि ‘थोड़ा कहा ज्यादा समझना’। आप तो यह जानते ही होंगे की खेती का 75% काम महिलाएं करती हैं। अधिकांश के मन में उनके श्रम को पहचान नहीं दिए जाने का क्षोभ और गुस्सा होता है। भले ही सभी उसे व्यक्त न कर पाती हों। मैं यह सोचती थी कि संसद में बैठे लोग तो इस आकांक्षा को न तो समझ पाते हैं और न ही महसूस कर पाते हैं पर आप, एक लोकतांत्रिक संविधान, जिसकी आत्मा में समानता का मूल्य बसा है, उस संविधान के रक्षक हैं, आप कैसे इसे नहीं समझ पाए कि यहाँ आई महिलाएं सिर्फ पति का साथ निभाने नहीं आई हैं (और अगर आई भी है तो क्या? ये उनकी इच्छा और हक है) महोदय वे महिलाएं अपनी किसान होने की पहचान के नाते आई हैं, इस अहसास के साथ आई हैं कि वे किसान हैं।
वे समझ रही हैं कि किसानी कितना तकलीफदेह पेशा हो गया है। देश के धान्य-कोठारों को भरने में उनका भी पसीना बहता है। उनमें से तमाम के घरों में किसानी पर छाये संकट के कारण मौतें हुई हैं। उनके भी प्रियजनों ने इन्हीं मुसीबतों के कारण आत्महत्याएं की हैं। उनकी आत्महत्याओं के बाद कर्जे की वसूली के लिये आये बैंकों के आलिमों का यही सामना करती हैं या कर रही हैं। अधिकाँश को तो पति की मौत के बाद मुआवजा भी नहीं मिलता क्योंकि जमीन के कागजातों पर उनका नाम नहीं होता क्योंकि उन्हें किसान नहीं माना जाता। महामहिम, ये सारी बातें आपको तो पता ही होंगी। मेरा आपको बताना शोभा नहीं देता। आप बताइये कि क्या वे किसान नहीं हैं?
महोदय, ये महिलाएं खेती के तौर तरीकों पर किसी कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ा सकती हैं, कृषि पर छाये संकट, उस संकट के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-पर्यावरण और धार्मिक पहलुओं के रेशे-रेशे पर किसी मीडिया हाउस में घंटों चर्चा कर सकती हैं क्योंकि खेती ही उनका जीवन है, उसी से उनका वजूद है।
महोदय मैं तो सोचती थी कि लोकतंत्र के शीर्ष पर होने के कारण जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती मौजूदगी और हिस्सेदारी आपको तसल्ली देती होगी, आश्वस्त करती होगी। इसीलिये किसान आन्दोलन में उनकी मौजूदगी और उनकी स्वायत्तता आपको भा रही होगी। उनकी गंभीरता और आत्मविश्वास से आप खुश हो रहे होंगे। राजनीतिक रैलियों में ट्रक में भर कर आई महिलाओं और डेढ़ महीने से प्रदर्शन पर बैठीं इन किसान महिलाओं में आप अंतर कर पा रहे होंगे। खबरें तो आप तक भी पहुँच ही होंगी। आप समझ ही गए होंगे कि ये कुछ कहना चाहती हैं। ये खेती पर छाये संकट और अपनी पहचान के लिए भी आई हैं। आपको उन्हें सुनना चाहिए था महामहिम, यह उनका हक है। अपनी पहचान की उनकी लड़ाई का संज्ञान लेना चाहिए था। लेकिन अफ़सोस आपने तो उन्हें जाने के लिए कह दिया।
आप जानते ही हैं कि जिस संविधान के आप संरक्षक हैं उसे बनाने में दुर्गाबाई देशमुख, अम्मू स्वामीनाथन, बेगम एजाज़ रसूल, दाक्षायनी वेलायुधन जैसी 15 महिलाओं का भी सक्रिय योगदान रहा है। एक-एक आन्दोलन और संघर्ष से ही महिलाओं ने अधिकार हासिल किये हैं। अनेक कानूनी लडाइयां भी लड़ी हैं। किसान के रूप में उनकी पहचान को मान्यता सिर्फ उनकी ही जीत नहीं होगी बल्कि समस्त नारी समुदाय की जीत होगी और वह आगे बढ़ेंगी।
क्षमा चाहती हूँ, पर मैं खुद को रोक नहीं पाई। महामहिम, आपने हम महिलाओं को बहुत निराश किया।
–आशु वर्मा