Thursday, January 19, 2023

नहीं रहे मित्र कुलदीप सिंह कोकी लेकिन छोड़ गए कई सवाल

Monday:16th January 2023 at 03:47 PM Via Mobile call 

पत्रकारों की आर्थिकता मज़बूत बनाने लिए समाज भी आगे आए   


लुधियाना: 18 जनवरी 2023: (रेक्टर कथूरिया//मीडिया स्क्रीन ऑनलाइन)::

आज बाद दोपहर ही पता चला कि पत्रकार कुलदीप जी नहीं रहे। पुराने मित्र और सुख दुःख के साथी रहे अजय कोहली जी ने उनके देहांत की खबर दी। उन्होंने और कुछ अन्य मित्रों ने बताया कि सुबह तक ठीक लग रहे थे। साढ़े सात बजे तक तो अपनी अख़बार मालवा प्वाइंट के लिंक सोशल मीडिया पर पोस्ट भी करते रहे। इसी बीच सुबह ही 09 और 09:30 के दरम्यान ही अचानक उनकी तबियत बिगड़ी। कहने लगे चक्कर से आ रहे हैं। उन्हें फवारा चौंक वाले न्यूरो अस्पताल पहुँचाया गया लेकिन अस्पताल के अंदर पहुँचने से पहले ही वह इस दुनिया से जा चुके थे। सुबह करीब 11 बजे तक उनके न रहने की खबर सभी मित्रों को मिलनी शुरू हुई। वरिष्ठ पत्रकार मित्र अश्वनी जेतली ने भी बहुत से लोगों को सूचित किया। 

बहुत दुखद है कुलदीप जी का यूं चले जाना। हम सभी मित्र प्यार से उन्हें कोकी कहा करते थे। हर रोज़ अक्सर मिलने मिलाने वाले और उनके ज़्यादा नज़दीक रहने वाले मित्रों ने बताया कि कामकाज को लेकर आजकल बहुत बेहद चिंतित थे। उसी चिंता और टेंशन के चलते शायद दिमाग की नाड़ी फट गई। बाद में उनके बेटे दमनप्रीत  सिंह ने  भी ब्रेन हैमरेज की पुष्टि की।  

अभी शायद उम्र के साठ साल ही मुश्किल से पूरे कर पाए थे कि मौत उन्हें देखते ही देखते हमसे छीन ले गई। हम सभी का स्नेही मित्र हमारे दरम्यान नहीं रहा। आर्थिक तंगियों के बावजूद ज़रूरत  पड़ने पर मित्रों का हर संभव सहायक साबित होना। जेब खाली होने पर भी संकटग्रस्त मित्र के लिए कोई रास्ता सुझा देना। खुद को भी अगर कभी कोई बेबसी जैसी हालत घेर ले तो भी दोस्तों को कठिन घड़ियों में हौंसला देना शायद कुलदीप को ही आता था। कोई खुद को तीसमारखां समझ कर कुछ ज़्यादा ही हवा करने लगे तो उसकी हवा पल भर में निकालना भी कुलदीप के लिए चुटकी का काम रहता। किसी की बात पर आशंका होनी तो झट से मोबाईल निकालना औए बात की पुष्टि कर के हकीकत का पता लगा लेना। 

ज़िंदगी और वक्त ने उन्हें बहुत जाने माने लोगों से मिलवाया और बहुत बड़े बड़े घटनाक्रमों का साक्षी भी बनाया।समाज और सियासत में जिन लोगों ने कई कई बार आंधियों के खिलाफ स्टैंड ले कर दिखाया था उनका साथ भी कुलदीप जी को मिलता रहा। क्लीन शेव्ड रहे लेकिन पंथ और सिख धर्म के हर दर्द से अवगत रहते थे। सिख शहादत पत्रिका पर उनका नाम भी प्रिंट लाईन में छपता रहा। कई कई दुर्लभ किताबों का अनुवाद भी हिंदी और अंग्रेज़ी से किया और करवाया। 

किसी को कोई भी समस्या हो तो उनके कंप्लेंट सैल का दरवाज़ा हमेशां उनके लिए खुला रहता। नैशनल रोड पर स्थित काली सी बिल्डिंग--सूर्य आर्केड की सीढ़ियां चढ़ कर उनका दफ्तर आ जाता था। जेब की हालत कैसी भी हो, माहौल का मिजाज़ कुछ भी हो वह अपने पास आने वाले हर व्यक्ति की आवभगत करते और उसका दुःख दर्द सुनते। कोशिश करते संकट का समाधान भी तुरंत बता सकें। 

घर को चलाने में पिता का साथ देते थे। इसी म्हणत मशक्कत ने उनका बचपन भी उनसे छीन लिया था। उनके बचपन का वह मासूम सा चेहरा भी अब तक याद है मुझे। सर पर जुड़ा और उस पर रबड़ के साथ सफ़ेद रुमाल किसी फूल की तरफ सजा लगता था। जब गली मोहल्ले के अन्य बच्चे खेल रहे होते तब वह पिता की प्रिंटिंग प्रेस पर मेहनत कर रहे होते। कभी कंपोज़िंग, कभी फर्मा बांधना और उठवाना, कभी प्रिंटिंग प्रेस पर काम करना। बस साड़ी उम्र काम में ही निकल गई। 

गौरतलब है कि छोटी सी उम्र में ही पिता के साथ लुधियाना के प्रसिद्ध पुराने इलाके इस्लामगंज//अमरपुरा में प्रिंटिंग प्रेस के ज़रिए मेहनत मुशक्कत करते हुए उनकी शख्सियत का दृश्य रह रह कर आंखों के सामने उभर रहा है। उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं की छपाई के लिए एक एक अक्षर--एक एक मात्रा जोड़ कर कोई खबर या रचना तैयार होती थी। फिर उन सभी रचनाओं को जोड़ कर पूरा पेज बांधा जाता था और उसके बाद सभी पेज जोड़ कर कोई अख़बार या किताब छपा करती थी। 

उनके पिता बच्चों से बहुत सख्ती के साथ काम करवाया करते थे। उनके भाई भी पूरा सहयोग देते थे। प्रिंटिंग प्रेस नीचे वाले ग्राउंड फ्लोर पर चला  करती थी ऊपर रिहायश हुआ करती थी। थोड़ी थोड़ी देर बाद ऊपर से चाय बन कर आती रहती।  फिर कोशिश होती चाय भी खाली न हो। साथ बिस्कुट या कुछ और भी रहता। साथ ही उनके पिता बातों बातों में अपने सभी क्लाइंटस को बिठाए रखते। बिजली चली जाती तो सब को  मुसीबत ही लगती। कुछ देर के लिए काम रुक सा जाता। अँधेरे में भी कुलदीप कम्पोजिंग करते रहते। अतीत के वे सभी दृश्य अब इतने सालों बाद ज़हन में घूमने लगे हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई फिल्म कल्पना के पर्दे पर चल रही हो। 

सत्तर का दशक शायद उस समय समाप्त हो चुका था। अस्सी का दशक शुरू भी हो चुका था। अस्सी के दशक का यह वही दौर था जब पंजाबी में भी आधुनिक प्रिंटिंग अपना रंग ढंग ज़ोरशोर से दिखाने की दस्तक दे रही थी। कम्प्यूटर के ज़रिए कॉमसेट की आधुनिक कम्पोज़िंग चर्चा का विषय बन गई थी। ऑफसेट की तेज़ रफ़्तार प्रिंटिंग हम सभी को हैरान करने लगी थी। 

छोटी प्रिंटिंग प्रेस बस छोटे छोटे जॉब वर्क तक सिमटने लगी थी। लगता था यह सब जल्द ही अतीत बन जाएगी लेकिन सलेमटाबरी और नाली मोहल्ला में अभी भी उनकी झलक मिल जाती है। उस दौर की कई मशीनें ज़ोर शोर से बहुत से लोगों का रोज़गार बनी हुई हैं। इसके बावजूद इस दौर में कइयों की किस्मत पर मंदहाली ने दस्तक दी। कुलदीप कोकी के पिता की प्रिंटिंग प्रेस पर भी इस का असर पड़ा। लेकिन आर्थिक मंदहालियों से जूझते हुए भी उन्होंने न तो कभी अच्छे साहित्य का अध्यन ही छोड़ा और न ही सृजन का सिलसिला बंद होने दिया। इसके साथ ही नई तकनीक से भी वाकिफ होते रहे। सीमित से संसाधनों के बावजूद वह किसी न किसी बहाने मीडिया में सक्रिय रहे। यह सक्रियता पैसे कमाने के लिए नहीं थी बल्कि एक मिश्र को लेकर थी। वह बड़े बड़े समूहों में रह कर और उनसे दूर हो कर भी इस मिशन को समर्पित रहे। 

आज उनके जाने की खबर सुन कर मन बहुत उदास हो गया है।

फिर बहुत से सवाल उठ रहे हैं क्या यही है ज़िंदगी? कभी भी किसी भी वक्त किसी मित्र से बिछड़ जाना और कुछ न कर पाना!

कितने बेबस से हैं हम लोग हैं।  मित्रों  देखते रहते हैं लेकिन उन्हें बचाने का कोई ठोस कदम नहीं उठा सकते। समाज को राह दिखने वाला मीडिया अभी तक अंधेरे में है। 

जो वास्तविक ज़िंदगी में काम करते हैं लेकिन तिकड़मबाज़ी नहीं करते वे क्यूं इतने गुमनाम रह जाते हैं। क्यूं  उन पर खुशहाली की कृपा नहीं होती? लक्ष्मी क्यूं उन पर मेहरबान नहीं होती? हम दोनों के एक नज़दीकी मित्र बलवीर सिद्धू (पंजाबी अख़बार-जस्टिस न्यूज़ के मालिक,संपादक और प्रकाशक) ने बताया कि बार उन्हें सरकारी कार्डों और फायदों के लिए कहा लेकिन वह हर बार हंसते हुए बात को टाल जाते। यूं लगने लगता जैसे वह उनकी ख़ामोशी और रहस्यमय हंसी में शायद एक पुराना गीत गुनगुना रहे हों--

सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी

सच है दुनिया वालों कि हम हैं अनाड़ी!

अब कुलदीप कोकी जी हमारे दरम्यान नहीं रहे। ज़िंदगी भर संघर्ष करने वाला शख्स अब मौत की आगोश में  चला गया। सब संघर्ष बीच में ही छूट गए। सभी इरादे भी अधर में ही रह गए। लेकिन उनका जाना बहुत से सवाल छोड़ गया है कि क्या यह सब यूं ही चलता रहेगा? मेहनत, मुशक्कत, ईमानदारी और प्रतिबद्धता इसी तरह दम तोड़ती रहेगी। 

सत्ता बदलती रहती है लेकिन सरकारों को चाहिए कि कलमकारों को मान्यता, सहायता और आवश्यक सहयोग देने के लिए नियमों को आसान करे। जान सम्पर्क विभाग की शक्तियों को बढ़ाया जाए। कलमकारों की तलाश के लिए एक विशेष सैल बनाया जाए जो अपने स्तर पर खोज करके सही लोगों को सत्ता की तरफ से बनती सहायता दे सके। कलमकारों के स्वास्थ्य की जाँच और अवस्य्हक उपचार तो हर छह महीने बाद होना ही चाहिए। नियमों की सख्ती की बजाए असली कलमकार बचने की तरफ पहल होनी चाहिए।  

यह सब लिखते हुए मैं उनकी कमज़ोरियों, खामियों और मजबूरियों से भी अवगत हूं लेकिन जब तक समाज कलमकारों के प्रति उदासीन और गैर-ज़िम्मेदार बना रहेगा तब तक यह सब होता रहेगा। हमारे पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीव, कलाकार अलप आयु में ही दम तोड़ते रहेंगे। 

जब यह समाज अपनी वाहवाही के  आयोजन करता है तो उस समय आयोजक लोग चाय बनाने वाले को भी पैसे देते हैं, चाय परोसने और ले कर आने वाले  को भी पैसे दिए जाते हैं, दरियां बिछाने और कुर्सियां लाने लेजाने वालों को भी पैसे मिलते हैं लेकिन उसकी कवरेज के लिए दूर दराज से पहुंचे मीडिया वालों कोआयोजक नहीं  पूछते कि उनके वाहन में पैट्रोल है या नहीं? 

अगर कोई मजबूरी वश मांग भी ले तो उसे दे भी देते हैं लेकिन बाद में बदनाम करते हैं।  कोई सरकार से विज्ञापन मांग ले तो उसे सरकारिया कह कर बुरा भला कहते हैं लेकिन स्वयं की ज़िम्मेदारी का अहसास कभी नहीं करते। कवरेज की खबरों के ज़रिए अधिक से अधिक स्पेस और टाइमं बटोरने वाले ये चालाक लोग भी कलमकारों के जल्द देहांत के लिए कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। सभी पत्रकार संगठनों को इस तरफ भी ध्यान देना होगा। 

आखिर में गोपाल दास नीरज जी का शेयर याद आ रहा है:

वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की;

मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा - गोपालदास नीरज

स्नेह के साथ// बिछड़े हुए मित्रों की यादों के साथ//बिछड़ने की कगार पर खड़े और बहुत से कलमकारों के जाने के अंदेशे की चिंता के साथ आप सभी का--रेक्टर कथूरिया

No comments:

Post a Comment